अज़ान की व्यवस्था
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)
नबी करीम (सल्ल.) मदीना चले गए। इस्लामी समाज का आरंभ हुआ और इस्लामी समाज के नियम एवं सिद्धांत निर्धारित किए जाने लगे। नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ी जाने लगी। पहले अज़ान की व्यवस्था नहीं थी, अब नमाज़ से पहले अज़ान भी कही जाने लगी। उस समय वहाँ जो विभिन्न धर्म थे उनकी अलग-अलग रीतियाँ थीं। उदाहरणार्थ यहूदी लोग आग जलाते, उसमें कुछ चीज़ें डाली जातीं, फिर उससे जो धुआँ उठता उसे देखकर लोग इबादत के लिए आते थे। ईसाई लोग नाक़ूस (बीन) बजाते थे। इसलिए मुसलमानों ने भी सोचा कि वे भी इबादत (नमाज़) के लिए लोगों को बुलाने का कोई तरीक़ा अपनाएँ। अल्लाह ने इस मामले में भी नबी (सल्ल.) को मार्ग दिखाया, सहाबा किराम (रज़ि.) ने भी इस मामले में सुझाव दिए और फिर यह तय किया गया कि नमाज़ से पहले अज़ान दी जाएगी।
अज़ान अल्लाह की तौहीद (एकमात्र होने) का एक बहुत बड़ा एलान है। अगर हम उसके शब्दों पर ग़ौर करें तो इस सच्चाई को आसानी से समझ सकते हैं।
“अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर” (अल्लाह ही बड़ा है, अल्लाह ही बड़ा है), या (ईश्वर ही महान है, ईश्वर ही महान है)
“अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाह” (मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद (उपास्य) नहीं)।
एक अल्लाह जिसका कोई साझी नहीं, उसकी महानता का एलान, बड़ाई सिर्फ़ उसके लिए है, कोई बड़ा नहीं है, न कोई बादशाह बड़ा है, न कोई प्रधानमंत्री बड़ा है, न कोई मालदार बड़ा है, न कोई बुद्धिमान बड़ा है, न कोई दार्शनिक बड़ा है, बड़ा केवल अल्लाह है, उसके सिवा कोई बड़ा नहीं है। उसके बाद अल्लाह तआला से हमारा जो संबंध स्थापित होता है, वह रसूल के ज़रिए होता है
“अश्हदु अन-न मुहम्मदर्रसूलुल्लाह” (मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं)
“हय्या अलस्सलाह, हय्या अलस्सलाह” (आओ नमाज़ की ओर, आओ नमाज़ की ओर) और नमाज़ क्या है। यह सफलता प्राप्त करने का एक तरीक़ा है।
“हय्या अलल-फ़लाह, हय्या अलल-फ़लाह” (अपनी मुक्ति के लिए आओ, अपनी मुक्ति के लिए आओ) आख़िर में फिर एक बार दोहराया जाता है—
“अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर” (अल्लाह ही बड़ा है, अल्लाह ही बड़ा है) अल्लाह के सिवा कोई बड़ा नहीं है, किसी को यह बात शोभा नहीं देती कि वह अपनी बड़ाई का दावा करे, चाहे वह दुनिया की निगाह में कितना ही बड़ा क्यों न हो। उसके बाद—
“ला इला-ह इल्लल्लाह” (अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं है)
यानी सारे तर्क देकर बात पूरी की जा रही है कि मैं यह सन्देश तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। और कुछ लोग इसको नहीं मानते, तो उन्हें बताया जा रहा है कि बस बड़ाई उसी की है, और उसके सिवा कोई माबूद नहीं है, मैं अपनी बात ख़त्म कर रहा हूँ।
नमाज़ के बारे में क़ुरआन में एक जगह कहा गया—
إِنَّ الصَّلاةَ كَانَتْ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ كِتَاباً مَوْقُوتاً
“निस्संदेह ईमानवालों पर समय की पाबन्दी के साथ नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है।” (क़ुरआन, 4/103)
नमाज़ में हम कितनी बार ‘अल्लाहु अकबर’ कहते हैं। नमाज़ शुरू करते समय, फिर रुकू में जाने पर, फिर सजदे में जाने पर, सजदे से उठने पर….यानी बड़ाई केवल अल्लाह के लिए है, उसके सिवा बड़ा बनना किसी को शोभा नहीं देता।
दुनिया में जितनी जंगें होती हैं, जितने लड़ाई-दंगे होते हैं, उनके पीछे अपनी बड़ाई और घमंड की साथ ही दूसरों को नीच और तुच्छ समझने और उन्हें नीचा दिखाने की भावना काम कर रही होती है। अज़ान के माध्यम से और फिर नमाज़ द्वारा विस्तार से इंसान को इस बात की व्यावहारिक सीख दी जा रही है कि बड़ाई तो बस अल्लाह तआला के लिए है, अतः तुम्हारे लिए उचित नीति यह है कि तुम विनम्रता अपनाओ, अल्लाह तआला की इबादत करते रहो और अपनी बड़ाई के किसी भी प्रकार के दंभ में मुब्तला न हो। अल्लाह हमको इन बातों पर अमल करनेवाला बनाए। आमीन, या रब्बल-आलमीन।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।