Supreme Court on Sharia Court Decision: सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के एक मामले में बड़ा फैसला सुनाया है. कोर्ट ने कहा कि ‘कोर्ट ऑफ काजी’, ‘कोर्ट ऑफ (दारुल काजा) कजीयत’, ‘शरिया कोर्ट’ आदि, चाहे जो भी नाम हो, कानून में कोई मान्यता नहीं है. इन अदालतों में जो भी फैसले होते हैं, वे सिर्फ उन्हीं लोगों के बीच मायने रखते हैं. इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने शौहर को अपनी पूर्व पत्नी को प्रति माह 4,000 रुपए गुजारा भत्ता देने का भी आदेश दिया.
क्या है पूरा मामला?
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में एक शख्स ने साल 2002 में दूसरी शादी की और साल 2005 में शौहर ने भोपाल के काजी कोर्ट में अपनी पहली बीवी के खिलाफ तलाक की याचिका दायर की, लेकिन दोनों के बीच समझौते के बाद याचिका खारिज कर दी गई. फिर 2008 में पति ने दारुल कजा में तलाक के लिए याचिका दायर की. इस बीच, पत्नी ने गुजारा भत्ता के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैमिली कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन फैमिली कोर्ट ने गुजारा भत्ता का दावा खारिज कर दिया, क्योंकि पति ने पत्नी को नहीं छोड़ा था.
इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया. जहां जस्टिस एहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस सिद्ध निशो धूलिया की बेंच ने मामले की सुनवाई की.
लाइव लॉ की एक रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘कोर्ट ऑफ काजी’, ‘कोर्ट ऑफ (दारुल काजा) कजीयत’, ‘शरिया कोर्ट’ आदि, चाहे जो भी नाम हो, कानून में कोई मान्यता नहीं है और उनके द्वारा दिया गया कोई भी निर्देश कानून में लागू करने योग्य नहीं है.
विश्व लोचन मदान बनाम भारत संघ केस का हवाला
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्ला की बेंच ने विश्व लोचन मदान बनाम भारत संघ मामले में 2014 के फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि शरीयत अदालतों और फतवों को कानूनी मान्यता नहीं है.
इसके साथ ही अदालत ने उस व्यक्ति को फैमिली कोर्ट के समक्ष रखरखाव याचिका दायर करने की तारीख से अपीलकर्ता को रखरखाव के रूप में प्रति माह 4,000 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया.