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बैअते-अक़बा प्रथम एवं द्वितीय

बैअते-अक़बा प्रथम एवं द्वितीय

प्रिय दर्शको, आप सबको मेरा प्यार भरा सलाम। मेराज में नबी (सल्ल.) को यह शुभ-सूचना मिल चुकी थी कि अब तुम्हें हिजरत करनी है, यानी मक्का छोड़ देना है। ताइफ़ मक्का से बहुत क़रीब था। लेकिन ताइफ़ के लोगों ने इस्लामी आह्वान को रद्ध कर दिया। मक्का से मदीना 400 किलोमीटर यानी 250 मील दूर था, लेकिन वहाँ से स्वागत की हवाएँ आने लगीं। मदीना के लोग जब भी हज के लिए मक्का आते, तो नबी (सल्ल.) उनके ख़ेमों पर जाते, उनसे मिलते और उनके सामने इस्लाम की शिक्षाओं को पेश करते। मदीना में यहूदियों के 20-25 क़बीले आबाद थे, वहाँ उनका बड़ा प्रभाव था। वे ब्याज का कारोबार भी करते थे। उनके पास क़िले और बाग़ थे। औस और ख़ज़रज नामक यहूदियों के दो क़बीले थे, जिनमें औस छोटा क़बीला था, जबकि ख़ज़रज उसके मुक़ाबले में एक बड़ा क़बीला था। ये शिर्क (बहुदेववाद) के अनुसार ही जीवन गुज़ारते थे। यहूदी लोग इन दो क़बीलों को आपस में लड़ाने का काम भी करते थे। जंगे-बुआस में इन दोनों क़बीलों को बहुत नुक़सान पहुँचा था। अब वे थक हारकर बैठे थे और शान्ति चाहते थे।

यहूदी, जो तौरात का ज्ञान रखते थे, और जिन्होंने अगरचे ईसा (अलैहि.) के सन्देश को ठुकरा दिया था, लेकिन तौहीद (एकेश्वरवाद) की बातें उनके यहाँ थीं, पैग़म्बरों की जीवनियाँ उनके यहाँ थीं। वे कहा करते थे कि “हमारे धार्मिक ग्रंथों में इस बात की भविष्यवाणी है कि एक नबी आनेवाला है। वह नबी आएगा तो हम मदीना के मुशरिकों (बहुदेववादियों) से समझ लेंगे। उस समय हम इनसे बदला लेंगे।” इस प्रकार की बातें किया करते थे।

मदीना के औस और ख़ज़रज के लोग भी ये बातें सुनते थे। और जब उन्होंने देखा कि नबी (सल्ल.) के सन्देश की रौशनी मदीना तक भी पहुँच रही है, तो उनमें से बहुत से लोगों के दिल नर्म पड़ गए। उन्होंने कहा, “क्यों न इस नेमत को हम पहले आगे बढ़कर हासिल कर लें।” चुनाँचे मदीना का पहला नौजवान जिसने इस्लाम स्वीकार किया वह सुवैद-बिन-सामित था, दूसरा नौजवान इयास-बिन-मुआज़ था। यहाँ तक कि आप (सल्ल.) की पैग़म्बरी के ग्यारहवें साल छः लोग मदीना के पास एक घाटी ‘अक़बा’ से आए। उन लोगों के सामने जब नबी (सल्ल.) ने अपनी बात पेश की तो उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया और आप (सल्ल.) को दावत दी कि “आप मदीना तशरीफ़ लाएँ। हम जान-माल से आपकी सहायता करेंगे। और मदीना में एक केन्द्र स्थापित करके वहाँ से इस्लाम के प्रचार-प्रसार का काम किया जा सकेगा।”

अगले साल ‘बैअते-अक़बा-2’ हुई। इसमें 74 लोग (72 पुरुष और 2 महिलाएँ) आए थे। ’बैअते-अक़बा-1’ के बाद ही नबी (सल्ल.) ने मुसअब-बिन-उमैर (रज़ि.) को मदीना भेज दिया था और वह वहाँ जाकर इस्लाम के सन्देश को लोगों के सामने दिन-रात पेश कर रहे थे, और बहुत से लोगों ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया था। चुनाँचे पैग़म्बरी के 12वें साल में ‘बैअते-अक़बा-2’ हुई और उसमें 72 पुरुषों तथा 2 महिलाओं ने मदीना से आकर भाग लिया।

नबी (सल्ल.) ने उन लोगों से इस बात पर बैअत (वचन) ली कि “जब मैं मक्का को छोड़कर मदीना आऊँगा, तुमको मेरी सहायता करनी होगी।” इस बैअत के समय नबी (सल्ल.) के चचा हज़रत अब्बास (रज़ि.) भी साथ थे। उन्होंने कहा, “देखो, ऐसा नहीं होना चाहिए कि इनको मदीना बुलाने के बाद जब अरबवालों का विरोध उग्र रूप धारण कर ले, और तलवारों से वार किए जाने लगें, तो तुम इन्हें छोड़ दो। अगर कोई मजबूरी है तो अभी बता दो। लेकिन अगर तुमने इनको बुलाया और फिर साथ नहीं दिया तो फिर यह अधिक अपमानजनक बात होगी।”

वे लोग बोले, “हम इस बात के लिए तैयार हैं कि हम अरब की सारी विरोधी शक्तियों से मुक़ाबला करेंगे। हम जिस प्रकार अपने परिवार वालों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार इनकी भी रक्षा करेंगे।” इस प्रकार बैअते-अक़बा-2 हुई और फिर नबी (सल्ल.) ने उनसे तौहीद (एकेश्वरवाद) पर चलने की भी बैअत ली, और उनसे इस बात का वचन लिया कि वे व्यभिचार नहीं करेंगे, चोरी नहीं करेंगे, बुराइयों से बचेंगे।

इससे पता चलता है कि हिजरत से पहले ही मदीना के लोग आप (सल्ल.) को मदीना आने का आमंत्रण दे चुके थे। साथ ही उन नेक लोगों ने इस बात का वचन भी दिया वे आप (सल्ल.) का हर प्रकार से समर्थन और सहयोग करेंगे।

अल्लाह की बेहतरीन रहमतें बरसें नबी (सल्ल.) पर और मदीना के अंसार (यानी मददगारों) पर।

व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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