पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) का आह्वान ‘सफ़ा’ पर्वत से

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) का आह्वान ‘सफ़ा’ पर्वत से

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)

प्रिय दर्शको,

आप सबको मेरा सलाम। नबी करीम (सल्ल.) को लोगों को इस्लाम की ओर बुलाते-बुलाते तीन वर्ष बीत चुके थे, लेकिन आप (सल्ल.) का सन्देश अभी तक क़रीबी रिश्तेदारों और दोस्तों तक ही सीमित था। अब आप (सल्ल.) को इस सन्देश को जन-जन तक पहुँचाना था। अतः एक दिन प्रातःकाल आप सफ़ा नामक पहाड़ी पर चढ़ गए। अरबों का एक तरीक़ा था कि जब वे लोगों को कोई चेतावनी देते तो ‘या सबाहा’ अर्थात् ‘सुबह का संकट’ कहकर लोगों को पुकारते थे।

चुनाँचे आप (सल्ल.) ने भी इसी तरह लोगों को इकट्ठा किया, जब सब लोग इकट्टा हो गए तो आपने उनसे पूछा, “अगर मैं यह कहूँ कि इस पहाड़ी के पीछे एक सेना है जो तुमपर आक्रमण करने का चाहती है, तो क्या तुम इस बात को मानोगे?”

लोगों ने कहा, “ऐ मुहम्मद, आपने आज तक कभी झूठ नहीं बोला, आप सादिक़ (सच्चे) हैं, आप अमीन (अमानतदार) हैं, हम आपकी बात क्यों नहीं मानेंगे?”

आप (सल्ल.) ने कहा कि “इससे बड़ी बात है, जिससे तुमको सूचित करना चाहता हूँ…..वह बात यह है कि यह पूरी सृष्टि अल्लाह की है, यह दुनिया उसी की बनाई हुई है, हमारी यह ज़िन्दगी अल्लाह तआला की अमानत है। अतः अल्लाह की अप्रसन्नता से बचो, अपने आपको जहन्नम (नरक) की आग से बचाओ, अगर अल्लाह नाराज़ हो गया तो जहन्नम हमारा आख़िरी ठिकाना होगा।….मेरी बात मानो, मेरे आमंत्रण को स्वीकार कर लो, मुझे अल्लाह का पैग़म्बर स्वीकार करो और मेरा अनुपालन करो।”

इस पर सबसे अधिक ख़राब प्रतिक्रिया आप (सल्ल.) के सगे चचा अबू-लहब का था—उसे अबू लहब इसलिए कहते थे क्योंकि उसका रंग लालिमा लिए हुए बहुत गोरा था। ‘लहब’ अरबी भाषा में आग की लपट को कहते हैं, इसी अनुकूलता से उसे यह उपनाम दिया गया था। वह बहुत अमीर और स्वार्थी था—उसने कहा, “तू बर्बाद हो, क्या इसी लिए तूने हमको बुलाया था?”

उन लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रयाएँ थीं। जब भी कोई नया सन्देश दिया जाता है, विशेषकर ऐसा सन्देश जो लोगों की प्रचलित परंपराओं, रीतियों और विचारों से भिन्न हो तो लोग उसका भरसक विरोध करते हैं। चुनाँचे यह आम सभा जो सफ़ा नामक पहाड़ी पर हुई थी, वह किसी सकारात्मक निष्कर्ष पर न पहुँच सकी। लोग अपने-अपने घरों को चले गए, लेकिन उनमें कुछ लोग जो गंभीरता से सोचनेवाले थे और आँख बन्द करके पुरीना परंपराओं का पालन काफ़ी नहीं समझते थे, ऐसे लोगों को आप (सल्ल.) की बात ने प्रभावित किया। उन्हें लगा कि आप (सल्ल.) ठीक ही तो कह रहे हैं और हमारा समाज ग़लत है। हम जिन मूर्तियों, आत्माओं और व्यक्तियों की पूजा कर रहे हैं, वह सबका सब ग़लत है। मुहम्मद, जो सादिक़ और अमीन हैं, वे कोई ग़लत दावा नहीं कर सकते। इस प्रकार इस्लाम का सन्देश कुछ और आगे बढ़ा और आख़िरकार दिया ने देखा, इतिहास ने इसको लिखा कि—

मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए, कारवाँ बनता गया

दुरूद और सलाम हो अल्लाह की बेहद और बेहिसाब रहमतें हों, नबी (सल्ल.) पर और उन तमाम लोगों पर जिन्होंने निष्ठापूर्वक आप (सल्ल.) का अनुपालन किया और इस सन्देश को दुनिया में फैलाने का काम करते रहे। अपने आपको बदला, अपने ख़ानदान को बदला, अपने समाज को बदला और निष्ठापूर्वक, प्रेमपूर्वक और मानव सेवा की भावना के साथ अपना काम करते रहे कि सब लोग उनके इस आमंत्रण को स्वीकार कर लें। हमारा और आपका मक़सद भी यही है और क़ियामत तक यही हमारा मक़सद रहेगा। मुस्लिम समाज बनाया ही इसी लिए गया है।

کُنْتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ
“तुम वह उत्म समुदाय हो जिसे लोगों के लिए निकाला गया है।”

आइए, हम नबी करीम (सल्ल.) के जीवन की इस आरंभिक घटना से ही अपने दिल में इस बात को ताज़ा करें कि—

मेरे दीं का मक़सद तेरे दीं की सरफ़राज़ी
मैं इसी लिए मुसलमाँ मैं इसी लिए नमाज़ी

व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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