हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) और अबू-तालिब का इन्तिक़ाल
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)
प्रिय दर्शको, आप सबको मेरा प्यार भरा सलाम।
नबी (सल्ल.) का आन्दोलन आगे बढ़ता जा रहा था। सद्बुद्धि रखनेवाले लोग धीरे-धीरे इस्लाम के दायरे में दाख़िल हो रहे थे। क़ुरैश इसको लेकर बड़े चिंतित थे। उन्होंने देखा कि नबी (सल्ल.) के एक प्रभावशाली संरक्षक अबू-तालिब अब काफ़ी कमज़ोर हो गए हैं, और शायद अब अधिक दिनों तक जीवित न रहें। इसलिए वे उनके पास पहुँचे और उनसे कहा, “बस अब बहुत हो चुका। अब आपके भतीजे का इस प्रकार नए दीन का प्रचार हम सहन नहीं कर सकते। अच्छा होगा कि उसे रोक लीजिए, वरना हम फिर उससे अपने तरीक़े से निमटेंगे।”
इसके बाद अबू-तालिब ने आप (सल्ल.) को बुलाया और क़ुरैश की धमकी के बारे में बताया। आप (सल्ल.) ने कहा, “मैं क़ुरैश के सरदारों से एक बात कहना चाहता हूँ कि वे ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ (अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं) को मान लें, तो उनकी दुनिया भी सार्थक हो जाएगी और आख़िरत (परलोक) में भी वे सफल हो जाएँगे।”
ये सुनकर वहाँ मौजूद सब के सब लोग भड़क गए और अबू-तालिब से बोले, “आपका भतीजा तो हमारी कोई बात मानने के लिए तैयार नहीं है, हम ऐसी दस बातें कह सकते हैं…” और बुरा-भला कहते हुए चले गए।
हज़रत अबू-तालिब का अन्तिम समय निकट आता जा रहा था। एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने बहुत मुहब्बत के साथ उनसे कहा, “चचाजान, आप बस इतना कह दीजिए कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं, ताकि इस बात पर मैं अल्लाह के यहाँ आपका गवाह बन सकूँ…” लेकिन अबू-तालिब न माने। बोले कि “बेटे, अगर मैं ऐसा कहूँगा तो ये लोग कहेंगे कि मैं मौत से डर गया। मैं अपने बाप-दादा के दीन (धर्म) पर ही अपनी जान देता हूँ।” और इस प्रकार इस्लाम के समर्थक रहते हुए भी बिना इस्लाम स्वीकार किए वे इस दुनिया से विदा हो गए।
अबू-तालिब की मौत से नबी (सल्ल.) के संरक्षक का एक बड़ा और मज़बूत सहारा टूट गया। यह आप (सल्ल.) की पैग़म्बरी का दसवाँ वर्ष था और फिर उसके बाद इस दुख के बाद आप (सल्ल.) को एक दुख और झेलना पड़ा। यह दुख था आपकी प्यारी पत्नी हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) की मौत का सदमा।
हज़रत ख़दीजा से जब आप (सल्ल.) ने निकाह किया था, उस समय उनकी आयु चालीस साल थी, और आप (सल्ल.) की उम्र 25 वर्ष थी। और 25 ही वर्ष से वे आपके साथ थीं, हर सुख-दुख में आप (सल्ल.) का साथ दिया था, अपनी सारी दौलत आप (सल्ल.) पर और इस्लाम को फैलाने तथा इस्लाम स्वीकार करनेवाले कमज़ोर और सताए हुए लोगों की मदद पर ख़र्च की थी। यह वही ख़दीजा (रज़ि.) थीं, जिनपर अल्लाह ने जिब्रील के माध्यम से सलाम भिजवाया और यह शुभ-सूचना उन तक पहुँचवाई कि ख़दीजा के लिए जन्नत में मोतियों से एक घर तैयार किया गया है।
मौत को तो बहरहाल आती है, समस्याएँ पैदा होते हैं, और जुदाई का दुख सहन करना पड़ता है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है—
وَ اللّٰهُ مُتِمُّ نُوْرِهٖ وَ لَوْ كَرِهَ الْكٰفِرُوْنَ
“अल्लाह अपने प्रकाश को पूर्ण करके ही रहेगा, यद्यपि इनकार करनेवालों को अप्रिय ही लगे।” (क़ुरआन, 61/8)
क्योंकि अल्लाह तआला ने यह भी फ़रमाया है कि—
هُوَ الَّذِیْ اَرْسَلَ رَسُوْلَهٗ بِالْهُدٰى وَ دِیْنِ الْحَقِّ لِیُظْهِرَهٗ عَلَى الدِّیْنِ كُلِّهٖ وَ لَوْ كَرِهَ الْمُشْرِكُوْنَ
“वही है जिसने अपने रसूल को मार्गदर्शन और सत्यधर्म के साथ भेजा, ताकि उसे पूरे के पूरे धर्म पर प्रभुत्व प्रदान कर दे, यद्यपि बहुदेववादियों को अप्रिय ही लगे।” (क़ुरआन, 61/9)
यह था अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का मिशन कि —
हो वुसअते-अफ़लाक पे तकबीरे-मुसलसल
और ख़ाक की आग़ोश में हों तस्बीहो-मुजाहदात
अल्लाह के बन्दे बस अल्लाह ही के बन्दे बन जाएँ, किसी और की इबादत न करें।
जिस साल में हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) और अबू-तालिब का इन्तिक़ाल हुआ, उसको ‘आमुल-हुज़्न’ (दुख का वर्ष) कहा जाता है। उसके बाद तीन वर्ष तक और नबी (सल्ल.) मक्का में ठहरे रहे। उन्हीं तीन वर्षों में ताइफ़ का सफ़र किया और वहाँ आप (सल्ल.) के साथ अत्यंत अपमानजनक और कष्टप्रद व्यवहार किया गया, जिसमें आप (सल्ल.) लहू-लुहान तक हो गए। इसी साल मेराज का सफ़र भी आप (सल्ल.) ने किया, जिसमें आप (सल्ल.) ने आसमानों की यात्रा की, आसमान और धरती की व्यवस्था कैसे चल रही है, इसको देखा। उसी ज़माने में मेराज के सफ़र के बाद क़ुरआन की सूरा-17 बनी-इसराईल अवतरित हुई और आप (सल्ल.) को एक आदेश पत्र (Mandate) दिया गया कि आपको मदीना जाने के बाद इस्लामी समाज, बल्कि इस्लामी राज्य की स्थापना करनी है।
अल्लाह की असीमित कृपाएँ हों हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर, उनका साथ देनेवाले तमाम सहाबा किराम पर, और अल्लाह तआला हमें उन सबके पदचिह्नों पर चलनेवाला बनाए। आमीन, या रब्बल आलमीन।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।