हज़रत मुहम्मद (सल्ल.): दाई हलीमा के घर से वापस माँ आमिना के पास

हज़रत मुहम्मद (सल्ल.): दाई हलीमा के घर से वापस माँ आमिना के पास

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)

प्रिय दर्शको, आप सबको मेरा प्यार भरा सलाम।

नबी (सल्ल.) दूध पिलाने वाली माँ दाई हलीमा के पास लगभग दो वर्ष रहे। दो वर्ष बाद हज़रत हलीमा उनको लेकर मक्का आईं, लेकिन उनका दिल नहीं चाहता था कि वे मुहम्मद (सल्ल.) को उनकी माँ आमिना के सिपुर्द कर दें, क्योंकि उन्होंने आप (सल्ल.) के आने से जो बरकतें देखी थीं, और छोटे से बच्चे का जो रवैया था, उससे वे बहुत प्रभावित थीं। दूसरी बात यह थी कि उस समय मक्का शहर में महामारी जैसी कुछ बीमारियाँ भी फैली हुई थीं, जिसके कारण उन्होंने कहा, “मुहतरमा आमिना साहिबा, आपकी बड़ी मेहरबानी होगी अगर आप इस बच्चे को एक-दो साल और मेरे पास रहने दें। यह तब कुछ मज़बूत भी हो जाएगा, और फिर मक्का में इस वक़्त महामारी के कुछ प्रभाव भी तो हैं।” तो दिल न चाहते हुए भी हज़रत आमिना ने उनके इस निवेदन को स्वीकार कर लिया और वे मुहम्मद (सल्ल.) को लेकर ख़ुशी-ख़ुशी अपने क़बीले बनू-सअद में चली गईं और फिर नबी (सल्ल.) वहीं पर रहने लगे।

आप (सल्ल.) लगभग चार साल के थे कि एक अद्भुत घटना घटी। याद रहे कि नबी (सल्ल.) से लगभग 600 वर्ष पहले ईसा (अलैहि.) आए थे। वे भी अल्लाह का सन्देश ही लेकर आए थे, लेकिन दो-तीन सौ वर्ष के बाद उनके दीन (धर्म) को बिगाड़ दिया गया और उनको ख़ुदा का बेटा ठहराकर उनकी पूजा होने लगी। अलबत्ता दूसरी बहुत सी अच्छी बातें भी थीं उन बिगड़े हुए ईसाई लोगों में। वे ख़ुदा से डरते थे, लोगों की मदद करते थे आदि। अतः कुछ ईसाइयों का एक क़ाफ़िला वहाँ से गुज़रा और वहाँ पर रुक गया। ये हब्शा (इथोपिया) के रहनेवाले ईसाई थे। उन्होंने बच्चे को बहुत ग़ौर से देखा कि यह बच्चा कहाँ का और किसका बच्चा है। उस वक़्त बच्चों का अपहरण कर के उन्हें ग़ुलाम बना लिया जाता था। इसलिए उन्होंने कहा कि “यह बच्चा हमें दे दो, इस बच्चे को हम लेकर जाएँगे।” उन्होंने महसूस किया कि यह बच्चा कोई महापुरुष बननेवाला है। और शायद उन्होंने ईसा (अलैहि.) की शिक्षाओं में एक आनेवाले पैग़म्बर की भविष्यवाणियों में जो विशेषताएँ और निशानियाँ बताई गई थीं, संभवतः उनमें से कुछ लक्षण उन्हें उस बच्चे में दिखाई पड़ गए थे। दाई हलीमा इस स्थिति से घबरा उठीं। वे जानती थीं वह बच्चा तो एक अमानत के रूप में उनके पास है। इसलिए वे मुहम्मद (सल्ल.) को लेकर कहीं झाड़ियों में छिप गईं और फिर उस क़ाफ़िले को चकमा देकर वे बच्चे को लेकर गिरती-पड़ती हज़रत आमिना के पास पहुँच गईं । उनसे सारी घटना कह सुनाई और कहा कि “मैं शायद आपके बच्चे की हिफ़ाज़त करने में कामयाब न हो सकूँगी। इसलिए आपकी अमानत को आपके सिपुर्द करने के लिए आई हूँ।”

नबी (सल्ल.) जो लगभग पाँच वर्ष तक दाई हलीमा के पास रहे, अपनी दूध पिलानेवाली माँ से बहुत मुहब्बत करते थे। बचपन से ही आप (सल्ल.) के अन्दर बहुत अच्छे लक्षण पाए जाते थे। हिन्दी का एक मुहावरा है, “होनहार बिरवान के होत चिकने पात”। यानी जो पौधा बड़ा होकर एक बड़े वृक्ष बनने की क्षमता रखता है, उसके पत्ते आरंभ से ही मज़बूत और चिकने-चिकने होते हैं। तो नबी (सल्ल.) का नैतिक आचरण ऐसा ही था। आप (सल्ल.) अपनी दूध शरीक बहन शैमा (जो दाई हलीमा की बेटी थीं) और दूसरे कुछ बच्चों के साथ खेलते थे, फिर आप मक्का वापस आ गए।

उस ज़माने में पढ़ने-लिखने का अधिक चलन न था। अरब की भूमि एक बंजर भूमि थी। वहाँ बहुत कम लोग पढ़े-लिखे हुआ करते थे। अलबत्ता वे बुद्धिमान थे, शायरी में निपुण थे, उनकी भाषा बहुत अच्छी थी। अरबों का भाषा-ज्ञान उस समय भी सारे संसार में प्रसिद्ध था। इस प्रकार मुहम्मद (सल्ल.) की भाषा भी बहुत अच्छी हो गई थी। यहाँ तक कि आप (सल्ल.) से अच्छा भाषण देनेवाला और बात करनेवाला कोई पैदा नहीं हुआ।

क़ुरआन जो कि विशुद्ध रूप से अल्लाह की वाणी है, जिसमें किसी और चीज़ की मिलावट नहीं की गई है। नबी (सल्ल.) ने हमें जो अनगिनत निर्देश दिए हैं, वह भी अगरचे अरबी भाषा ही में हैं, लेकिन वह भाषा क़ुरआन की भाषा से बिलकुल अलग है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अल्लाह के कलाम (वाणी) के बाद सबसे अच्छी भाषा मुहम्मद (सल्ल.) का कलाम है। जिस प्रकार उर्दू शायरी के ज्ञाता शायरी देखकर ही पहचान लेते हैं कि यह शायरी ग़ालिब की है, यह अल्लामा इक़बाल की है। उसी तरह थोड़ी सी अरबी जाननेवाला व्यक्ति भी नबी (सल्ल.) की भाषा को पहचान लेता है। यह गुण आप (सल्ल.) को हलीमा के ख़ानदान बनू-सअद से मिला था। वहाँ के लोग बहुत अच्छी अरबी बोलते थे।

नबी (सल्ल.) ने अपनी दूध पिलानेवाली माँ को याद रखा। चुनाँचे बहुत समय बाद जब आप (सल्ल.) पैग़म्बर बन चुके थे, हलीमा आईं तो आप (सल्ल.), “मेरी माँ, मेरी माँ…” कहकर उनसे लिपट गए और उनके लिए अपनी चादर बिछा दी। और फिर हज़रत हलीमा से कहा कि “आप मरे यहाँ ठहरें, बल्कि आप चाहें तो मेरे यहाँ ही रह जाएँ।” मगर हलीमा ने कहा कि “नहीं, मैं अपने घर ही जाऊँगी। वहीं मुझे अधिक आसानी है, वहीं मैं ज़्यादा ख़ुश रहूँगी।” आप (सल्ल.) ने उनको खजूर, अनाज और दूसरी चीज़ें दीं और फिर उन्हें अत्यंत आदर एवं सम्मान के साथ उन्हें विदा किया।

एक और घटना भी सुनते जाइए। यह तब की घटना है, जब शायद हलीमा भी संसार से विदा हो चुकी थीं। किसी जंग के मौक़े पर लगभग पचास वर्ष की महिला ने, जो कि वास्तव में हलीमा की बेटी शैमा थी, किसी से कहा, “मैं तुम्हारे नबी की बहन हूँ।” सुनने वालों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसे नबी (सल्ल.) के पास लाया गया। उसने आप (सल्ल.) को देखते ही कहा, “मुहम्मद, क्या तुझे याद नहीं है कि हम सब मिलकर खेला करते थे?” यह सुनकर आप (सल्ल.) को बचपन की सुखद बातें याद आ गईं और आपने उन्हें आदर सहित बिठाया। वे महिला बोलीं, “मुहम्मद, क्या तू जानता नहीं मुझे?” अपने कुर्ते की आस्तीन खिसकाई और बताया कि “देख, तूने एक बार मुझे यहाँ पर काट लिया था। तेरे दाँतों के निशान अब तक यहाँ पर हैं।”

यह सब सुनकर आप (सल्ल.) के अपने बचपन की कितनी ही बातें याद आ गईं। आपकी आँखें भर आईं, आपने उन्हें अपने यहाँ रहने की पेशकश की मगर उन्होंने स्वीकार न की। तब आप (सल्ल.) ने उन्हें बहुत सारी चीज़ें देकर विदा किया।

तो यह था नबी (सल्ल.) का आरंभिक जीवन। आप (सल्ल.) की दूध पिलानेवाली माँ ने आप पर जो एहसान किया था, और आप (सल्ल.) की दूध शरीक बहन के साथ जो बचपन आपने गुज़ारा था, उसे आप (सल्ल.) ने हमेशा याद रखा। इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि हम पर जो एहसान करे, हमें उस एहसान को हमेशा याद रखना चाहिए और हमे कभी उस एहसान को नहीं भूलना चाहिए। और अल्लाह तआला कहता है।

هَلْ جَزَآءُ ٱلْإِحْسَٰنِ إِلَّا ٱلْإِحْسَٰنُ
“भलाई का बदला भलाई के सिवा और क्या हो सकता है?” (क़ुरआन, 55/60)

व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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