नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने ‘उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004’ की संवैधानिक वैधता बरकरार रखी और इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला खारिज कर दिया, जिसने पहले इसे फैसला सुनाते हुए यूपी मदरसा एक्ट को रद्द कर दिया था.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, हाईकोर्ट ने इस आधार पर अधिनियम खारिज करने में गलती की कि यह धर्मनिरपेक्षता के मूल ढांचे के सिद्धांत का उल्लंघन करता है. किसी क़ानून को तभी खारिज किया जा सकता है, जब वह संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “किसी क़ानून की संवैधानिक वैधता को संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन के लिए चुनौती नहीं दी जा सकती. धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के उल्लंघन के लिए क़ानून को चुनौती देने में यह दिखाया जाना चाहिए कि क़ानून धर्मनिरपेक्षता से संबंधित संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करता है. हाईकोर्ट ने यह मानने में गलती की कि अगर क़ानून मूल ढांचे का उल्लंघन करता है तो उसे खारिज किया जाना चाहिए.”
हालांकि, न्यायालय ने माना कि मदरसा अधिनियम, जिस सीमा तक ‘फाजिल’ और ‘कामिल’ डिग्री के संबंध में उच्च शिक्षा को विनियमित करता है, UGC Act के साथ विरोधाभासी है और उस सीमा तक यह असंवैधानिक है.
क्या है कामिल और फाजिल की डिग्रियां?
मदरसों के उन छात्रों को कामिल और फाजिल की डिग्रियां दी जाती हैं, जो आलिम कर चुके होते हैं. जानकारी के मुताबिक कामिल तक की तालीम ग्रेजुएशन और फाजिल डिग्री पोस्ट ग्रेजुएशन के समकक्ष है.
मदरसा बोर्ड से मदरसों को तहतानिया, फौकानिया, आलिया लेवल पर मान्यता दी जाती है. तहतानिया प्राइमरी कैटेगरी और फौकानिया जूनियर हाई स्कूल कैटेगरी है. वहीं, आलिया आगे की पढ़ाई मानी जाती है, जिसमें 10वीं के समकक्ष मुंशी/मौलवी और 12वीं के समकक्ष आलिम की डिग्री मानी जाती है. आलिया स्तर के मदरसों में ही स्टूडेंट्स को कामिल और फाजिल की डिग्रियां दी जाती रही हैं. यूपी मदरसा बोर्ड से मान्यता प्राप्त मदरसों में मुंशी/मौलवी, आलिम और कामिल के एग्जाम होते हैं.
मदरसों में पढ़ाए जाते हैं यह विषय
मुंशी (10वीं) – थियोलॉजी (शिया/सुन्नी), अरबी लिटरेचर, फारसी लिटरेचर, उर्दू साहित्य, सामान्य इंग्लिश/हिंदी जैसे सब्जेक्ट्स होते हैं.
आलिम (12वीं) – थियोलॉजी (शिया/सुन्नी), गृह विज्ञान, सामान्य हिन्दी, लॉजिक और फिलासफी, सामान्य अध्ययन, साइंस, टाइपिंग, अरबी लिटरेचर (अरबी स्टूडेंट्स के लिए), फारसी लिटरेचर (फारसी स्टूडेंट्स के लिए), उर्दू लिटरेचर, सामान्य अंग्रेजी विषय होते हैं.
कामिल – मुताल-ए-हदीस, मुताल-ए-मजाहिब, अरबी लिटरेचर (अरबी स्टूडेंट्स के लिए), फारसी लिटरेचर (फारसी स्टूडेंट्स के लिए), फुनूने अदब, बलागत व उरूज, सामाजिक अध्ययन, मुताल-ए-फिक्ह इस्लामी (सुन्नी/शिया), मुताल-ए-उसूले फिक्ह (सुन्नी/शिया), जदीद अरबी अदब की तारीख (अरबी थर्ड ईयर स्टूडेंट्स के लिए), जदीद फारसी अदब की तारीख (फारसी थर्ड ईयर स्टूडेंट्स के लिए), तरजुमा निगारी इंशा और ताबीर जैसे विषय होते हैं.
मदरसा एजुकेशन सिस्टम
उत्तर प्रदेश में करीब 23500 मदरसे हैं. इनमें यूपी मदरसा बोर्ड से 16513 मदरसे मान्यता प्राप्त हैं. वहीं, करीब 8500 मदरसे बगैर मान्यता के संचालित किए जा रहे हैं. मदरसों का एजुकेशन सिस्टम देश के एजुकेशन सिस्टम के जैसा ही होता है. मदरसों में प्राइमरी, सेकेंडरी, सीनियर सेकेंडरी और ग्रेजुएशन लेवल पर तालीम दी जाती है. मदरसों में हर डिविजन के नाम अलग हैं, लेकिन इनमें इंग्लिश, साइंस जैसे तमाम विषयों की दुनियावी पढ़ाई कराई जाती है.
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 22 मार्च के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई की, जिसमें ‘उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004’ को असंवैधानिक करार दिया गया था.
निर्णय से निष्कर्ष इस प्रकार हैं:
1. मदरसा अधिनियम बोर्ड द्वारा मान्यता प्राप्त मदरसों में शिक्षा के मानकों को विनियमित करता है.
2. मदरसा अधिनियम राज्य के सकारात्मक दायित्व के अनुरूप है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि मान्यता प्राप्त मदरसों में पढ़ने वाले छात्र योग्यता का वह स्तर प्राप्त करें, जिससे वे समाज में सक्रिय रूप से भाग ले सकें और जीविकोपार्जन कर सकें.
3. अनुच्छेद 21ए और शिक्षा का अधिकार अधिनियम को धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए. बोर्ड राज्य सरकार की स्वीकृति से ऐसे नियम बना सकता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि धार्मिक अल्पसंख्यक शिक्षाएं अल्पसंख्यक चरित्र को नष्ट किए बिना अपेक्षित मानकों की धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करें.
4. मदरसा अधिनियम राज्य विधानमंडल की विधायी क्षमता के अंतर्गत आता है. सूची 3 की प्रविष्टि 25 से इसका संबंध है. हालांकि, मदरसा अधिनियम के प्रावधान जो ‘फाजिल’ और ‘कामिल’ जैसी उच्च शिक्षा डिग्रियों को विनियमित करने का प्रयास करते हैं, असंवैधानिक हैं, क्योंकि वे UGC Act के साथ टकराव में हैं जिसे सूची 1 की प्रविष्टि 66 के तहत अधिनियमित किया गया.
न्यायालय ने माना कि मदरसा अधिनियम के प्रावधान उचित हैं, क्योंकि वे स्टूडेंट की शैक्षणिक उत्कृष्टता में सुधार करके और उन्हें परीक्षाओं में बैठने में सक्षम बनाकर विनियमन के उद्देश्य को पूरा करते हैं. अधिनियम उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक समुदाय के हितों को भी सुरक्षित करता है, क्योंकि (1) यह मदरसों में शिक्षा के मानक को विनियमित करता है और (2) यह परीक्षा आयोजित करता है। स्टूडेंट को उच्च शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति देते हुए प्रमाण पत्र प्रदान करता है.
हाईकोर्ट ने यह मानते हुए गलती की कि मदरसा अधिनियम के तहत दी जाने वाली शिक्षा अनुच्छेद 21ए का उल्लंघन करती है, क्योंकि – (1) शिक्षा का अधिकार अधिनियम अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों पर लागू नहीं होता है, (2) धार्मिक अल्पसंख्यकों को धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करने के लिए मदरसा स्थापित करने और प्रशासन करने का अधिकार अनुच्छेद 30 द्वारा संरक्षित है और (3) बोर्ड और राज्य सरकार के पास मदरसों के लिए मानक निर्धारित करने के लिए पर्याप्त विनियामक शक्तियां हैं.
हालांकि, मदरसे धार्मिक शिक्षाएं देते हैं, लेकिन उनका प्राथमिक उद्देश्य शिक्षा है. इसलिए न्यायालय ने अधिनियम की विधायी क्षमता को सूची III (समवर्ती सूची) की प्रविष्टि 25 में पाया जो शिक्षा से संबंधित है. केवल यह तथ्य कि विनियमित की जाने वाली शिक्षा में कुछ धार्मिक शिक्षाएं या निर्देश शामिल हैं, स्वचालित रूप से कानून को राज्य की विधायी क्षमता से बाहर नहीं करता.
न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 28(3) का उपफल यह है कि धार्मिक शिक्षा किसी ऐसे शिक्षण संस्थान में दी जा सकती है, जिसे राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त हो या जिसे राज्य से सहायता प्राप्त हो, लेकिन किसी भी स्टूडेंट को ऐसे संस्थान में धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.
सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं अंजुम कादरी, मैनेजर्स एसोसिएशन मदारिस अरबिया (यूपी), ऑल इंडिया टीचर्स एसोसिएशन मदारिस अरबिया (नई दिल्ली), मैनेजर्स एसोसिएशन अरबी मदरसा नई बाजार और टीचर्स एसोसिएशन मदारिस अरबिया कानपुर द्वारा दायर की गईं.
दो दिवसीय सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं ने मुख्य रूप से यह तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने यूपी मदरसा अधिनियम को गलत तरीके से समझा कि इसका उद्देश्य धार्मिक शिक्षा प्रदान करना है, न कि वास्तविक उद्देश्य को देखना है – जो मुस्लिम बच्चों की शिक्षा के लिए विनियमन की योजना प्रदान करना है.
अधिनियम का विरोध करने वाले हस्तक्षेपकर्ताओं के साथ-साथ राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) ने जोर देकर कहा कि मदरसा शिक्षा संविधान के अनुच्छेद 21ए के तहत गारंटीकृत गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के वादे को नकारती है. धार्मिक शिक्षा लेने की स्वतंत्रता तो है, लेकिन इसे मुख्यधारा की शिक्षा के विकल्प के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता.
अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी, जिसमें प्रथम दृष्टया यह पाया गया था कि हाईकोर्ट ने अधिनियम की गलत व्याख्या की है.
हाईकोर्ट का निर्णय क्या था?
जस्टिस विवेक चौधरी और जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की खंडपीठ ने कानून को अधिकार-विहीन घोषित करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को योजना बनाने का निर्देश दिया, जिससे वर्तमान में मदरसों में पढ़ रहे स्टूडेंट को औपचारिक शिक्षा प्रणाली में समायोजित किया जा सके.
हाईकोर्ट का निर्णय अंशुमान सिंह राठौर द्वारा दायर एक रिट याचिका पर आया, जिसमें उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड के अधिकारों को चुनौती दी गई. साथ ही भारत संघ और राज्य सरकार द्वारा अल्पसंख्यक कल्याण विभाग द्वारा मदरसा के प्रबंधन और अन्य संबंधित मुद्दों पर आपत्ति जताई गई.
वहीं सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मरकज़ी तालीमी बोर्ड ने स्वागत किया है.
मीडिया को जारी एक बयान में बोर्ड के सचिव सैयद तनवीर अहमद ने कहा, “हम यूपी मदरसा शिक्षा अधिनियम को बरकरार रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का स्वागत करते हैं.”
सैयद तनवीर ने आगे कहा, “हम मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की माननीय पीठ से सहमत हैं, जिन्होंने इस बात पर जोर दिया कि धर्मनिरपेक्षता का संवैधानिक सिद्धांत यह है कि विधायी ढांचे के भीतर धार्मिक प्रशिक्षण या शिक्षा को शामिल करने मात्र से वह असंवैधानिक नहीं हो जाता. सर्वोच्च न्यायालय ने सही ढंग से दृढ़तापूर्वक स्पष्ट किया है कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है “जीना और जीने देना.”
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने अपने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा है, “उत्तर प्रदेश के मदरसा अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक करार दिया. योगी सरकार की लगातार कोशिश रही है कि मदरसों को बदनाम किया जाए और उन्हें गैरकानूनी कहा जाए. शायद इसलिए क्योंकि यूपी सरकार ने 21,000 मदरसों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को उनकी तनख्वाह नहीं दी है. ये शिक्षक दीनी तालीम नहीं, बल्कि विज्ञान, गणित वगैरह पढ़ाते थे. 2022-23 तक ₹1,628.46 करोड़ की तनख्वाह बकाया थी. उम्मीद है कि अब जल्द से जल्द बकाया राशि का भुगतान कर दिया जाएगा”.
वहीं दूसरी तरफ संभल से सपा सांसद जियाउर्रहमान बर्क की भी इस फैसले पर प्रतिक्रिया सामने आई है. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है मुसलमानों को नुकसान पहुंचाने वाली सांप्रदायिक ताकतों के मुंह पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला तमाचा है उन्होंने फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि हिंदुस्तान में संविधान जिंदा है.
सपा सांसद ने यह भी कहा कि बीजेपी को इससे सबक लेना चाहिए. प्राइवेट प्रॉपर्टी पॉलिसी पर उन्होंने सरकार पर सरकारी प्रॉपर्टी बेचने और निजी प्रॉपर्टी पर कब्जा करने का आरोप लगाया. वहीं हिंदू संगठनों द्वारा सनातन बोर्ड की मांग पर कहा कि हिंदू समाज को यदि जरूरत है तो उनके लिए बोर्ड बनाए. हमें कोई आपत्ति नहीं, सभी धर्मों को हक इंसाफ मिलना चाहिए. सरकार वक्फ बोर्ड बिल वापस ले और अपने गिरेबान म़ें झांके जब हमारा हक नहीं दे पा रहे तो दूसरा बोर्ड बनाने की क्या जरूरत है, यदि सरकार सबका साथ सबका विकास की बात करती है तो मुसलमानों को उनके हक और आजादी दे.