AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर क्या बोले मुस्लिम संगठन?

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने 8 नवंबर 2024 को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर बड़ा फैसला सुनाया है. बता दें कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने के लिए मानदंड तय किए गए हैं. न्यायालय के बहुमत वाले फैसले में कहा गया है कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मानदंडों के आधार पर फैसला किया जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की पीठ ने 4-3 के बहुमत से अजीज बाशा मामले में 1967 का फैसला खारिज कर दिया. उस फैसले में कहा गया था कि कानून द्वारा गठित कोई संस्थान अल्पसंख्यक स्टेटस का दावा नहीं कर सकता है. उसके आधार पर ही एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इनकार किया था. सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों वाली संविधान पीठ ने 4 अलग-अलग फैसले सुनाए.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान का हकदार है. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि कोई भी धार्मिक समुदाय संस्थान की स्थापना कर सकता है. मगर धार्मिक समुदाय संस्था का प्रशासन नहीं देख सकता है. संस्थान की स्थापना सरकारी नियमों के मुताबिक की जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे का हकदार है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर तीन जजों की नई बेंच बनेगी. यह नई बेंच ही तय करेगी एएमयू का दर्जा क्या होगा. बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनके प्रशासन का अधिकार है. सात न्यायधीशों वाली संविधान पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा शामिल हैं.

इस मामले पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली ने कहा, “हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हैं जिसमें उसने 1967 के अपने फैसले को खारिज कर दिया है. तब फैसले में कहा गया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है.

मुझे लगता है कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को तय करने में सुप्रीम कोर्ट का फैसला काफी मददगार साबित होगा. सभी ऐतिहासिक तथ्य हमारे सामने हैं और हम उन्हें तीन जजों की बेंच के सामने पेश करेंगे. सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जाता है तो फिर कौन सा संस्थान अल्पसंख्यक संस्थान माना जाएगा और अनुच्छेद 30ए का क्या होगा?”

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने शुक्रवार को कहा कि केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार करना चाहिए, जिसमें उसने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे के संबंधित 1967 के फैसले को खारिज कर दिया है.

सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे से जुड़े मामले को शुक्रवार को नई पीठ के पास भेज दिया और 1967 के फैसले को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता क्योंकि इसकी स्थापना केंद्रीय कानून के तहत हुई थी.

ओवैसी ने ‘एक्स’ पर लिखा, “यह भारत के मुसलमानों के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है. वर्ष 1967 के फैसले में एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को खारिज कर दिया गया था जबकि वास्तव में उसका यही दर्जा था. अनुच्छेद 30 में कहा गया है कि अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थानों को उस तरीके से स्थापित करने का अधिकार है जिस तरह वे उचित समझते हैं.” उन्होंने एएमयू के छात्रों और शिक्षकों को बधाई देते हुए कहा, “अल्पसंख्यकों के खुद को शिक्षित करने के अधिकार को बरकरार रखा गया है.”

ओवैसी का ट्वीट
ओवैसी का ट्वीट

ओवैसी ने आरोप लगाया कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने एएमयू, जामिया विश्वविद्यालय और यहां तक ​​कि मदरसों को निशाना बनाने के लिए हर संभव प्रयास किया है और पार्टी को “अब आत्मनिरीक्षण करना चाहिए.” उन्होंने कहा कि केंद्र को एएमयू की सहायता करनी चाहिए क्योंकि यह भी एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है. उन्होंने बताया कि जामिया को प्रति छात्र तीन लाख रुपये, एएमयू को प्रति छात्र 3.9 लाख रुपये जबकि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) को प्रति छात्र 6.15 लाख रुपये मिलते हैं.”

इसके साथ ही जमाअत इस्लामी हिन्द के अमीर सैयद सआदतुल्लाह हुसैनी ने भी फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि ”यह फैसला अल्पसंख्यक संस्थानों के शैक्षिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा करेगा और देश के सभी धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा करेगा. सरकार को अल्पसंख्यकों के प्रति अपना रुख बदलना चाहिए और उनके विकास के लिए कदम उठाने चाहिए.”

जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने इस फैसले का स्वागत किया और कहा कि इससे अल्पसंख्यक दर्जे की बहाली का रास्ता आसान हुआ है. मौलाना मदनी ने कहा कि ”जमीअत उलमा-ए-हिंद ने हमेशा मुस्लिम अल्पसंख्यकों के शैक्षिक और संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष किया है.”

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मोहम्मद आसिम सिद्दीकी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया. उन्होंने आईएएनएस से कहा कि यह एक लंबी कानूनी लड़ाई थी. इसलिए हम इस केस के लिए बहुत मेहनत से तैयारी भी कर रहे थे. हम इस फैसले का स्वागत करते हैं और हम इस फैसले को स्वीकार करते हैं. हमें हमेशा से भारतीय न्यायपालिका पर गहरा भरोसा था और वह भरोसा आज भी बरकरार है.

संवैधानिक कानून विशेषज्ञ और एएमयू के पूर्व रजिस्ट्रार प्रोफेसर फैजान मुस्तफा, जिन्होंने अपने पद पर रहते हुए सुप्रीम कोर्ट में यह मामला दायर किया था, ने पीटीआई को बताया, “यह सामान्य रूप से अल्पसंख्यक अधिकारों और विशेष रूप से एएमयू के लिए एक व्यापक जीत है.”

एएमयू टीचर्स एसोसिएशन (एएमयूटीए) के सचिव मोहम्मद ओबैद सिद्दीकी ने कहा कि फैसला “उन बुनियादी सिद्धांतों की पुष्टि करता है जिन पर यह संस्थान स्थापित किया गया था.” सिद्दीकी ने कहा, यह फैसला शैक्षिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए संस्थान की स्थापना के पीछे के विचार की पुष्टि करता है.

बता दें कि 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत सरकार के मामले में कहा गया था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है. इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है.

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