ज़ैद: अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के संरक्षण में
प्रिय दर्शको,
आप सबको मेरा सलाम। आज की इस प्रस्तुति का शीर्षक है, ‘ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि.) : अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के संरक्षण में’। आप जानते हैं कि उस ज़माने में ग़ुलामी रिवाज था। उस वक़्त ही क्यों, आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले जब अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति बने, तो उन्होंने दासों पर बहुत बड़ा उपकार यह किया कि उन्होंने लगभग 35 लाख दासों को मुक्त कराया। यह तो अभी डेढ़ सौ साल पुरानी बात है, जबकि उस ज़माने में तो दास प्रथा बहुत आम थी। बच्चों को इस उद्देश्य से पकड़ा और अपहरण किया जाता, स्त्रियों को दासियाँ बना लिया जाता। सारा व्यापार और सारी आर्थिक गतिविधियाँ ग़ुलामों की सहायता से ही की जाती थीं। चुनाँचे हज़रत ज़ैद (रज़ि.) जो उस समय आठ वर्ष के बच्चे थे, उनके क़बीले पर किसी ने छापा मारा और हज़रत ज़ैद (रज़ि.) को ग़ुलाम बना लिया। फिर एक बाज़ार में लाकर उनको बेच दिया। संयोग से हज़रत खदीजा (रज़ि.) के पास वह आए, बल्कि अस्ल में वह हज़रत ख़दीजा के भतीजे के पास आए थे, वहाँ से हज़रत ख़दीजा उन्हें अपने साथ ले आईं । फिर जब हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) का निकाह नबी (सल्ल.) से हुआ तो आप (सल्ल.) ने उस बच्चे के व्यवहार को बहुत पसन्द किया और हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) ने कहा कि “आज से यह मेरा नहीं, आपका ख़ादिम है।” हज़रत ज़ैद ने भी देखा कि आप (सल्ल.) का नैतिक आचरण कितना अच्छा है, आप कितने स्नेहमयी हैं, आपके अन्दर कैसी नर्मी है। इन सब ख़ूबियों से ज़ैद बहुत प्रभावित हुए, हज़रत मुहम्मद उस समय तक पैग़म्बर नहीं बने थे। और फिर इसके बाद हज़रत ज़ैद (रज़ि.) के पिता हारिसा और उनके चचा आदि को पता चला कि हमारा बच्चा ग़ुलाम बनकर मक्का के एक बहुत ही शरीफ़ व्यक्ति के घर में जीवन बिता रहा है, तो वे यात्रा करके वहाँ आए और उन्होंने कहा, “हम आपको एक शरीफ़ इंसान के तौर पर पाते हैं, हम एक निवेदन लेकर आए हैं। हमें मालूम हुआ कि काफ़िले पर हमला हुआ और हमारे बच्चे को ग़ुलाम बना लिया गया था, और आज वह आपके संरक्षण में रह रहा है। आप जितनी दौलत माँगें, हम देने के लिए तैयार हैं। मेहरबानी करके आप उस बच्चे को ग़ुलामी से मुक्त कराएँ और हमारे सिपुर्द कर दें।” हज़रत मुहम्मद ने कहा, जो उस समय तक नबी नहीं बने थे, “मैं आपके उस बच्चे को बुलाता हूँ और उसे यह अधिकार देता हूँ, मुझे किसी भी तरह के मुआवज़े की ज़रूरत नहीं। यह मेरे लिए बड़ी ख़ुशी की बात होगी कि बच्चा अपने माँ-बाप के घर पहुँच जाए। लेकिन अगर वह मुझसे अलग न होना चाहे तो यह बात उचित नहीं है कि मैं उसको अपने से अलग करूँ।” आप (सल्ल.) ने ज़ैद को आवाज़ दी “ज़ैद।” ज़ैद ने तुरन्त जवाब दिया, “ऐ मुहम्मद, मैं हाज़िर हूँ” आप (सल्ल.) ने पूछा, “इनको जानते हो?” ज़ैद बोले, “जी हाँ, यह मेरे पिता हारिसा हैं।” आप (सल्ल.) ने पूछा, “ये कौन हैं?” ज़ैद ने बताया, “ये मेरे चचा हैं।” आप (सल्ल.) ने कहा, “देखो ज़ैद, यह तुम्हारे पिता और चचा, ये दोनों तुम्हें यहाँ से ले जाने के लिए आए हैं। अगर तुम इनके साथ जाना चाहो तो तुम इनके साथ जा सकते हो।” ज़ैद (रज़ि.) बोले, “नहीं, ऐ मुहम्मद मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहता।” यह सुनकर ज़ैद (रज़ि.) के पिता और चचा चकित रह गए। उन्होंने कहा, “ज़ैद, क्या तुम अपने क़बीले से दूर ग़ुलामी की ज़िन्दगी को पसन्द करते हो?” ज़ैद जो उस समय किशोरावस्था में थे, उन्होंने कहा, “अब्बाजान, मैं इन साहब में वे मानवीय गुण देखे हैं, वह शिष्टता देखी है और ऐसा प्रेम एवं वात्सल्य मुझे यहाँ पर मिला है कि इनके साए को छोड़कर मैं दुनिया में कहीं भी नहीं जा सकता।” यह सुनकर ज़ैद (रज़ि.) के बाप और चचा को भी इत्मीनान हो गया और उन्होंने कहा, “अच्छा ज़ैद, तुम यहाँ पर ख़ुश रह सकते हो तो हमें ख़ुशी होगी। इसी शरीफ़ इंसान के साथ रहो-बसो…” और फिर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को धन्यवाद कहा और चले गए।
इस घटना से आप समझ सकते हैं कि नबी (सल्ल.) शुरू से ही कैसे अच्छे इंसान थे। चुनाँचे नबी (सल्ल.) के इस प्रेम से प्रभावित हुए। आप (सल्ल.) में गए और कहा, “यह ज़ैद है, यह आज से मेरा बच्चा है, मैं इसे अपना बेटा बनाता हूँ। और यह मुझसे विरासत पाएगा, मैं इससे विरासत पाऊँगा।”
वैसे बाद में जब मदीना में जाने के बाद आयतें अवतरित हो गईं कि तुम्हारे जो ग़ुलाम हैं, उनको उनके बापों के ताल्लुक़ से पुकारा करो। अलबत्ता किसी को बाप, चचा आदि कहने में कोई हरज नहीं है। तो नबी (सल्ल.) ने फिर उसको बदल दिया और उनको ज़ैद-बिन-हारिसा कहने लगे।
तो यह था नबी (सल्ल.) का उच्च नैतिक आचरण कि एक बच्चा, जो ग़ुलाम बनकर आया था और फिर आपका प्रशंसक बन गया।
अल्लाह तआला की रहमत (दयालुता) हो मुहम्मद (सल्ल.) पर और हमें भी अल्लाह तआला इस बात पर आमादा करे कि आप (सल्ल.) का जो दयालुतापूर्ण व्यवहार था, अपने अधीनस्थों के साथ हम भी ऐसा ही व्यवहार करें। आमीन।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।