पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) की वरक़ा से मुलाक़ात
प्रिय दर्शको,
आप सबको मेरा सलाम। आज की इस प्रस्तुति का शीर्षक है “पैग़म्बर मुहम्मद वरक़ा से मुलाक़ात”।
हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) इस बात पर ख़ुश तो थीं कि अल्लाह तआला उनके पति को दुनिया की सबसे बड़ी दौलत (पैग़म्बरी) प्रदान कर रहा था, परन्तु साथ ही वे परेशान भी थीं। अतः वे दौड़ी-दौड़ी अपने चचेरे भाई हज़रत वरक़ा-बिन-नौफ़ल के पास पहुँचीं। वे काफ़ी वृद्ध थे और एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे, उन्होंने अल्लाह के सिवा कभी किसी को पूज्य नहीं समझा था, किसी मूर्ति के आगे सिर नहीं झुकाया था। हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) ने उनके पास जाकर उन्हें सारी घटना सुनाई। उन्होंने ईसा (अलैहि.) पर अल्लाह की अवतरित किताब इंजील का अध्ययन कर रखा था, बल्कि उसकी व्याख्या भी लिखते थे, और वे ईसाई हो चुके थे। उस समय ईसाईयत (ईसाई धर्म) पूरी तरह विकृत न हुई थी। उसके अन्दर उस समय विशुद्ध एकेश्वरवाद में विश्वास रखनेवाले लोग भी पाए जाते थे।
वरक़ा ने जब हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) से यह सारी घटना सुनी, जो उनकी चचेरी बहन थीं, तो कहा, “पाक है, पाक है, क़सम है उस सत्ता की जिसकी मुट्ठी में वरक़ा की जान है। ख़दीजा अगर तुम्हारी बात सच है, तो यह वही राज़दार (फ़रिश्ता) है जो मूसा के पास आता था। अल्लाह की क़सम! मुहम्मद इस उम्मत (समाज) के पैग़म्बर होंगे। इनसे कहो, डरें नहीं, और जो कुछ कर रहे हैं, करते रहें।”
अब ख़ुशी का यह सन्देश लेकर हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) अपने पति और अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के पास आईं और उनसे कहा कि “चलिए, मेरे चचेरे भाई वरक़ा ने बुलाया है, उनसे मिलते हैं।”
वरक़ा के घर जाने से पहले नबी (सल्ल.) काबा की ओर चले ताकि उसका तवाफ़ (परिक्रमा) कर लें। वहीं पर वरक़ा से मुलाक़ात हो गई। वरक़ा ने कहा, “मेरे प्यारे भतीजे, ज़रा मुझे तो सुनाओ कि तुमने क्या-क्या देखा?” आप (सल्ल.) ने जो कुछ भी घटा था, पूरे विस्तार से सुना डाला।
तब वरक़ा ने कहा, “उस सत्ता की क़सम, जिसके हाथ में मेरी जान है! तुमने जो कुछ देखा और सुना है, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि अल्लाह ने तुम्हें पैग़म्बरी के प्रतिष्ठत पद पर आसीन किया है। निःसन्देह यह वही राज़दार है जो मूसा के पास आता था। भतीजे, तुम पैग़म्बर होने का एलान करोगे तो लोग झुठलाएँगे, हर तरह सताएँगे, घर से बेघर कर देंगे, जंग करने से भी न चूकेंगे। काश, उस समय मैं ज़िन्दा रहता, ताकि मैं तुम्हारी मदद करूँ।” बहुत बूढ़े हो चुके थे वे।
आप (सल्ल.) ने पूछा, “तो क्या मेरी क़ौम के लोग मुझे घर से बेघर कर देंगे?” ज़ाहिर है यह परेशानी की बात थी और अभी तो नुबूवत के जो तौर-तरीक़े हैं, और आपको जिस तरह ज़िम्मेदारी अदा करनी है, उसका पूरा ज्ञान भी आप (सल्ल.) को नहीं हुआ था तो ऐसा लगता था कि दूर से परेशानियाँ झाँक रही हैं।
वरक़ा ने कहा, “हाँ, यक़ीनन ऐसा होगा, जब भी अल्लाह का कोई पैग़म्बर आया, क़ौम ने उसके साथ यही व्यवहार किया। अगर वे दिन देखने को मिला तो मैं तुम्हारी सहायता करूँगा, अगर अल्लाह ऐसा चाहे तो।” क्योंकि उनको विश्वास नहीं था कि अब वे अधिक समय तक जीवित रहेंगे। वे बेहद आदर के साथ नबी (सल्ल.) की ओर बढ़े और उनके सिर को आदर एवं सन्हेपूर्वक चूमा।
नबी (सल्ल.) घर को लौट आए। आप चिंतित और परेशान थे। बार-बार सोचते थे कि ‘मेरे कंधों पर पैग़म्बरी का जो भारी बोझ आ पड़ा है, मैं इसका हक़ कैसे अदा करूँगा। और जो आनेवाली मुश्किलें हैं, उनमें अल्लाह ही मेरा सहारा होगा। उसी के सहारे पर मैं यह बहुत बड़ा काम पूरा करने की कोशिश करूँगा।’
आप (सल्ल.) सोचते रहते थे, ‘मैं लोगों को कैसे बुलाऊँ? कैसे सीधे रास्ते की ओर आमंत्रित करूँ?’ कहने का मतलब यह कि दिल में विचारों का एक तूफ़ान था और आनेवाले तूफ़ान का अन्दाज़ा था। अब हक़ीक़त आप (सल्ल.) पर खुल चुकी थी। आप बस उसके लिए तैयारियों में लगे थे।
संभवतः आप (सल्ल.) की वह कैफ़ियत रही होगी—
न ग़रज़ किसी से न वास्ता, हमें काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरे फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से