अब्दुल्ला-बिन-मसऊद (रज़ि.) का साहस
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)
प्रिय दर्शको, आप सबको मेरा प्यार भरा सलाम।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की पैग़म्बरी का सातवाँ वर्ष था। इस्लाम का सन्देश लगातार फैलता जा रहा था और मक्का के बड़े लोग बहुत परेशान थे कि इसे कैसे रोका जाए। इसलिए उनकी ओर से व्यंग्य करने, सताने, हँसी उड़ाने और इसी प्रकार की ओछी हरकतों का सिलसिला बढ़ता जा रहा था। जो लोग क़ुरआन को ज़बानी याद करना चाहते, वे हल्की आवाज़ में, छिप-छिपकर उसे पढ़ा करते थे। फिर एक बार कुछ सहाबा (रज़ि.) बैठे हुए थे कि किसी ने यह प्रस्ताव रखा कि ऐसे छिप-छिपकर पढ़ने के बजाय पूरे मुखर रूप से इस्लाम के सन्देश को इन सरदारों के सामने पेश किया जाए।
लोगों ने कहा कि इसमें तो बहुत ख़तरा है। उनमें हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि.) भी मौजूद थे। उन्होंने कहा, “मैं यह काम कर सकता हूँ। मैं जाता हूँ और हरम में जाकर ज़ोरदार आवाज़ से क़ुरआन पढ़ूँगा।”
कुछ लोगों ने मना किया कि ऐसा करना ठीक न होगा। आप कमज़ोर क़बीले के आदमी हैं। आपके पीछे जो लोग हैं, वे शक्तिशाली नहीं हैं। वे आपपर पिल पड़ेंगे। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि.) ने कहा, “कोई बात नहीं, अल्लाह मेरी मदद करेगा, अल्लाह मेरी हिफ़ाज़त करेगा।”
चुनाँचे अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि.) वहाँ पर पहुँचे जहाँ क़ुरैश के सरदार बैठे हुए थे। उन्होंने पढ़ना शुरू कर दिया—
اَعُوْذُ بِاللہِ مِنَ الشَّیْطَانِ الرَّجِیْمِ
بِسْمِ اللہِ الرَّحْمٰن الرَّحِيْمِ
اَلرَّحْمٰنُ عَلَّمَ الْقُرْاٰنَ خَلَقَ الْاِنْسَانَ عَلَّمَہُ الْبَيَانَ
और फिर उसके बाद वे पढ़ते चले गए। क़ुरैश के सरदार सोचने लगे कि ‘इसको यह साहस कैसे हो गया कि हमारी मजलिस में आकर क़ुरआन सुना रहा है?’ वे लोग अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि.) झपटे और थप्पड़ों से उनको मारना शुरू कर दिया, यहाँ तक कि उनके चेहरा ख़ून से लाल हो गया। और फिर उसके बाद जब वे अपने साथियों से मिले तो उन्होंने कहा, “यह तो तुम्हारे साथ बहुत ज़ुल्म हुआ है।”
अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि.) बोले, “अल्लाह का कलाम सुनाते समय मेरा साहस बढ़ गया था। कल मैं फिर जाऊँगा और फिर जाकर क़ुरआन उनको सुनाऊँगा।”
नबी करीम (सल्ल.) ने कहा कि “नहीं अब्दुल्लाह, इतना ही काफ़ी है।”
इस्लाम इसकी भी शिक्षा देता है कि लोग अपने आपको अकारण मुश्किलों में न डालें। अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि.) बहुत ऊँचे दर्जे के सहाबी थे। उनके माध्यम से बहुत सारी हदीसें मुस्लिम समाज को मिली हैं। उन्होंने आख़िरी दम तक नबी (सल्ल.) का साथ दिया।
इस्लाम का सन्देश फैलता जा रहा था। अगरचे मक्का के सरदार उसके दुश्मन थे, मगर वे छिप-छिपकर क़ुरआन को सुनते भी थे। जब कभी अल्लाह के रसूल (सल्ल.) रात के अंधेरे और सन्नाटे में नमाज़ पढ़ते तो मुखर रूप से तिलावत (क़ुरआन पाठ) करते थे। एक बार ऐसा हुआ कि मक्का के सरदार, जिनमें अबू-जहल भी था, अबू-सुफ़ियान भी और अख़नस भी था, ये लोग छिपकर क़ुरआन सुनने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के घर के पास गए। जब एक-दूसरे पर नज़र पड़ी तो बड़ी शर्म आई। फ़ैसला किया कि कल से नहीं सुनेंगे, मगर इस कलाम (क़ुरआन) में ऐसी कशिश और इसका ऐसा प्रभाव था के वे इससे बच ही नहीं पा रहे थे। इसलिए यह सोचकर कि कल तो और कोई आएगा नहीं, फिर सुनने के लिए पहुँच जाते थे। ऐसा कई बार हुआ।
क़ुरआन मजीद अल्लाह का कलाम है जो क़ियामत तक के लिए आया है। इसपर न आगे से हमला हो सकता है न पीछे से। असत्य इसको दबा नहीं सकता। मेरे भाइयो, आपको और हमको क़ुरआन की सिर्फ़ तिलावत (पाठ) ही नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसमें अल्लाह ने जो सन्देश दिया है, जो आदेश दिए हैं, उन्हें भी समझना और उनका पालन करना चाहिए। क़ुरआन में कई स्थानों पर कहा गया है—
اَفَلاَ یَتَدَبَّرُوْنَ الْقُرْٓاٰنَ
“क्या ये लोग क़ुरआन पर ग़ौर नहीं करते?” और दूसरी जगह कहा गया—
وَلَقَدْ یَسَّرْنَا الْقُرْاٰنَ لِذِّکْرِ فَہَلْ مِنْ مُّدَّکِرٍ
“हमने क़ुरआन को नसीहत के लिए अनूकूल और सहज बना दिया है। फिर क्या है कोई नसीहत हासिल करनेवाला?”
मक्का के इस्लाम दुश्मन अरबी भाषा जानते थे, इसलिए क़ुरआन को समझने में भी उन्हें कोई कठिनाई न होती थी। उसकी हर बात उनके दिल को लगती थी।
आज भी सबसे अधिक पढ़ी जानेवाली किताब क़ुरआन मजीद है, लेकिन हममें से अधिकांश लोगों का व्यवहार क़ुरआन के साथ यह है कि हम इसे समझते नहीं हैं, बस बिना समझे पढ़ लेते हैं। जबकि क़ुरआन को समझने और फिर उसके अनुसार अपने जीवन को ढालने की ज़रूत है। अल्लाह से हमें ऐसा करने का सौभाग्य प्रदान करे।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।