अबू-जहल की शरारतें

अबू-जहल की शरारतें

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)

प्रिय दर्शको,

आज की इस प्रस्तुति का शीर्षक है, ‘अबू-जहल की शरारतें’

अबू-जहल आप (सल्ल.) का रिश्ते का चचा था (जबकि अबू-लहब आपका सगा चचा था), वह एक धनी व्यापारी था और क़ुरैश का एक बड़ा सरदार था। वह तरह-तरह से आप (सल्ल.) को सताता था। मौखिक छेड़-छाड़ और फब्तियाँ कसने से आगे बढ़कर एक दिन उसने आप (सल्ल.) को समाप्त कर देने ही का निश्चय कर लिया। चुनाँचे सुबह के समय जब नबी (सल्ल.) काबा में आकर नमाज़ पढ़ रहे थे तो उसने क़ुरैश के सरदारों से कहा कि “आज देखो एक बड़ा सा पत्थर लेकर आया हूँ। आज मुहम्मद यहाँ पर आएँगे, सजदे में जाएँगे, तो इस पत्थर से उनका सिर कुचल दूँगा।” और भी कई सरदार थे, उन्होंने उसका उत्साह बढ़ाया कि अवश्य ही तुम ऐसा कर सकते हो, इसमें बहुत मज़ा आएगा। इस प्रकार घायल किया जाए कि फिर लोगों को एक अल्लाह की ओर पुकारना भूलना जाएँ।

फिर जब नबी (सल्ल.) अल्लाह के सामने नमाज़ में खड़े हुए थे, फिर जब वे सजदे में गए तो अबू-जहल ने उस भारी पत्थर को उठाया और कुछ आगे बढ़ा, परन्तु इस बीच उसका क्या हुआ कि वह पत्थर को फेंककर सहसा पीछे हट गया, मानो किसी आग को देख रहा हो। लोगों ने कहा, “ऐ अबू-जहल, तुम तो बड़े बहादुर बनते थे। यह अचानक तुम्हें क्या हो गया?” अबू-जहल के चेहरे पर भय छाया हुआ था, वह बोला, “तुमने देखा नहीं?” फिर एक दूसरे सरदार ने उस पत्थर को उठाया। और बोला, “अरे, तुम डर गए? कायर आदमी हो,” वह आगे बढ़ा और फिर वह भी पीछे हट गया। अब अबू-जहल ने कहा, “मुझे अपने सामने एक आग का गोला नज़र आ रहा था, अगर मैं आगे बढ़ता तो मैं उसका शिकार हो जाता।”

इस घटना का उल्लेख क़ुरआन में किया गया है, उसका अनुवाद इस प्रकार है—

“क्या तुमने देखा उस व्यक्ति को जो एक बन्दे को रोकता है, जब वह नमाज़ अदा करता है? —तुम्हारा क्या विचार है? यदि वह सीधे मार्ग पर हो, या परहेज़गारी का हुक्म दे। तुम्हारा क्या विचार है? यदि उस (रोकनेवाले) ने झुठलाया और मुँह मोड़ा। क्या उसने नहीं जाना कि अल्लाह देख रहा है? कदापि नहीं, यदि वह न माना तो हम चोटी पकड़कर घसीटेंगे, झूठी, ख़ताकार चोटी। अब बुला ले अपनी मजलिस को! हम भी बुला लेते हैं सिपाहियों (अज़ाब के फ़रिश्तों) को।” (क़ुरआन, 96/9-18)

क़ुरैश ने बहुत सारी साज़शें कीं लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने हर मामले में सब्र से काम लिया। आप (सल्ल.) का भरोसा केवल अल्लाह तआला पर था। अल्लाह ने आपको इस बात का विश्वास दिलाया था कि “अल्लाह तुमको लोगों की शरारतों से बचाएगा।” और—

هُوَ الَّذِیْ اَرْسَلَ رَسُوْلَهٗ بِالْهُدٰى وَ دِیْنِ الْحَقِّ لِیُظْهِرَهٗ عَلَى الدِّیْنِ كُلِّهٖ وَ لَوْ كَرِهَ الْمُشْرِكُوْنَ
“वही है जिसने अपने रसूल को मार्गदर्शन और सत्यधर्म के साथ भेजा, ताकि उसे पूरे के पूरे धर्म पर प्रभुत्व प्रदान कर दे, यद्यपि बहुदेववादियों को अप्रिय ही लगे।” (क़ुरआन, 61/9)

और दुनिया ने नबी करीम (सल्ल.) की 23 वर्षीय पैग़म्बरी वाली ज़िन्दगी के ख़त्म होने पर देखा, ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन के 30 वर्षीय शासनकाल में देखा कि बाद के 100 वर्षों के अन्दर-अन्दर इस्लाम सारी दुनिया में फैल गया। जो पत्थर इस पत्थर पर गिरा वह चकनाचूर हो गया और यह एक पहाड़ साबित हुआ। दुनिया के लोग चकित हैं कि नबी (सल्ल.) ने 23 साल में इतना बड़ा इंक़िलाब कैसे ला दिया? और किस तरह 100 वर्षों के अन्दर-अन्दर सारे धर्म पराजित हो गए और अल्लाह का दीन (इस्लाम) को प्रभुत्व प्राप्त हो गया।

इतिहास अपने आपको दोहराता है। अगर अल्लाह के नेक बन्दे ईमान के साथ, अल्लाह पर भरोसा करके अल्लाह के मार्ग में आगे बढ़ेंगे तो निश्चय ही अल्लाह तआला की सहायता उन्हें प्राप्त होगी। अल्लाह ने क़ुरआन में फ़रमाया है—

“हम अपने रसूल को और उसके साथियों को अवश्य प्रभुत्व प्रदान करेंगे।”

अल्लाह तआला हमारी मदद करे और हमें इस काम में सक्रिय होने और अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने का सौभाग्य प्रदान करे, ताकि दुनिया में फिर से अल्लाह के नाम का नारा बुलन्द हो, अल्लाह का दीन फैल जाए और लोगों की समस्याएँ हल हों।

व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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