नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने 13 नवंबर को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा कि केवल आपराधिक आरोपों या सजा के आधार पर संपत्तियों को ध्वस्त नहीं किया जा सकता। अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि बिना उचित प्रक्रिया अपनाए और बिना स्पष्ट कारण बताए संपत्तियों का ध्वस्तीकरण अवैध है और इस तरह का कोई भी कदम कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन होगा। साथ ही, अदालत ने यह निर्देश दिया कि सार्वजनिक अधिकारी जो मनमाने तरीके से कार्रवाई करते हैं, उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाएगा। कोर्ट ने टिप्पणी की, “कानून अपने हाथ में लेने वाले अधिकारियों को जवाबदेही से बांधा जाना चाहिए।”
कोर्ट द्वारा जारी किए गए दिशा-निर्देशों के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:
1. नोटिस और अपील का अधिकार: प्रभावित पक्ष को ध्वस्तीकरण आदेशों को चुनौती देने या संपत्ति खाली करने के लिए एक निश्चित अवधि में सूचना दी जाएगी।
2. कारण बताओ नोटिस अनिवार्य: प्रस्तावित ध्वस्तीकरण से पहले 15 दिन का कारण बताओ नोटिस देना अनिवार्य है, जो कि नोटिस प्राप्ति के बाद ही मान्य होगा।
3. डिजिटल पोर्टल की स्थापना: तीन महीनों के भीतर एक डिजिटल पोर्टल लॉन्च किया जाएगा, जहां सभी ध्वस्तीकरण नोटिसों की जानकारी उपलब्ध होगी, जैसे नोटिस की तिथि, कारण, और सुनवाई की तिथि। इसका उद्देश्य अवैध नोटिसों और पिछली तारीख के नोटिसों के दुरुपयोग को रोकना है।
4. व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर: नामित अधिकारी के समक्ष प्रभावित पक्ष को व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर दिया जाएगा।
5. केवल अनिवार्य ध्वस्तीकरण: केवल उन्हीं अवैध निर्माणों के भागों को ध्वस्त किया जाएगा, जो अनिवार्य रूप से हटाए जाने योग्य हों।
6. सुनवाई का निष्कर्ष: सार्वजनिक सुनवाई का निष्कर्ष एक सुसंगत आदेश के रूप में आएगा, जिसमें गृहस्वामी के तर्क, प्राधिकरण के निष्कर्ष और ऐसे संपत्ति क्षेत्रों का विवरण शामिल होगा जो अनिवार्य रूप से ध्वस्त किए जाने योग्य हों।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि किसी व्यक्ति पर आपराधिक आरोप हो और उसी प्रकार की अन्य संपत्तियों को ध्वस्त नहीं किया गया हो, तो इस प्रकार का ध्वस्तीकरण अवैध माना जा सकता है। यदि ध्वस्तीकरण कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन करते हुए पाया गया, तो जिम्मेदार अधिकारियों को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहराया जाएगा। उनके वेतन से पुनर्निर्माण की लागत और अन्य हर्जाना लिया जाएगा। इन निर्देशों का उल्लंघन होने पर अवमानना कार्यवाही और अभियोजन भी शुरू किया जाएगा।
एपीसीआर का हस्तक्षेप और सुप्रीम कोर्ट का आदेश:-
एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स (एपीसीआर) ने सुप्रीम कोर्ट में पीड़ितों की ओर से सीधे हस्तक्षेप की सुविधा प्रदान की। उदयपुर के राशिद खान और जावरा के मोहम्मद हुसैन के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की, जिसमें उनके घरों को उनके परिजनों पर लगे आरोपों के कारण बिना सुनवाई ध्वस्त कर दिया गया था। इन हस्तक्षेपों को वरिष्ठ अधिवक्ता सी.यू. सिंह और उनकी कानूनी टीम (AOR फौजिया शकील, AOR उज्जवल सिंह, अधिवक्ता शिवांश सक्सेना, तस्मिया तालेहा, और एम हुज़ैफा) द्वारा प्रस्तुत किया गया।
17 सितंबर 2024 को, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश जारी कर पूरे देश में बिना अनुमति के ध्वस्तीकरण पर रोक लगा दी। कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि मनमानी ध्वस्तीकरण कार्रवाई को रोका जाए, जिससे कई पीड़ित परिवारों को राहत मिली।
एपीसीआर ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप सिविल सोसाइटी के साथ परामर्श कर एक समग्र सुझाव पेश किया, जिसमें देशभर में दंडात्मक ध्वस्तीकरणों को रोकने के लिए उचित प्रक्रिया का ढांचा, अधिकारियों के लिए जवाबदेही तंत्र और पीड़ितों के लिए मुआवजा योजना प्रस्तावित की गई। यह हस्तक्षेप मनमानी ध्वस्तीकरणों को रोकने और कानूनी प्रक्रिया की रक्षा के लिए एपीसीआर का एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
न्याय और निष्पक्षता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम:-
यह फैसला दंडात्मक ध्वस्तीकरण के उपयोग पर एक महत्वपूर्ण मिसाल है, जो यह सुनिश्चित करता है कि ऐसी कार्रवाइयां न्याय, निष्पक्षता और कानून के सिद्धांतों के अनुसार की जानी चाहिए।
एपीसीआर ने कहा कि यह दिशा-निर्देश दंडात्मक ध्वस्तीकरणों को रोकने और पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा के बड़े संघर्ष में केवल पहला कदम है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय अभी तक पीड़ितों के लिए मुआवजे का पूरा विवरण नहीं देता है और पहले से ध्वस्त किए गए ढांचों के पुनर्निर्माण या मुआवजे का स्पष्ट मार्ग नहीं बताता है। एपीसीआर इस दिशा में अपने प्रयास जारी रखेगा, ताकि पीड़ितों को अधिक ठोस, क्रियाशील और बाध्यकारी समाधान मिल सकें।