ईसाई ग़ुलाम अद्दास का इस्लाम स्वीकार करना

ईसाई ग़ुलाम अद्दास का इस्लाम स्वीकार करना

प्रिय दर्शको, आप सबको मेरा प्यार भरा सलाम।

नबी (सल्ल.) के मक्का में रहते हुए यह आख़िरी साल था। मक्का के सरदारों और धनाढ्य लोगों को दिलों पर मानो मुहर लग गई थी। उन्हें अपनी सत्ता और प्रभुत्व के छिन जाने का ख़तरा था और वे किसी भी प्रकार आप (सल्ल.) के सन्देश को स्वीकार करने को तैयार न थे। उस समय नबी (सल्ल.) ने लगभग सौ-सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित ताइफ़ का सफ़र किया। आप (सल्ल.) ने सोचा कि ‘मक्का के सरदारों के दिलों पर तो जैसे मुहर लग गई है, इससे अच्छा है कि ताइफ़ जाकर वहाँ के भले लोगों के सामने इस्लाम का सन्देश पेश किया जाए।’

ताइफ़ में तीन सरदार थे। उन लोगों ने आप (सल्ल.) के साथ बात करने तक से इनकार कर दिया और कहा, “हम आपसे बात करने के लिए तैयार नहीं हैं।” और यह भी कहा कि “यहाँ आपको अपना सन्देश पेश करने की भी अनुमति नहीं है। आप तो हमारे नौजवानों को बिगाड़ देंगे।”

नबी (सल्ल.) ने कहा, “अच्छा देखो, कम से कम इतना तो करो कि यहाँ तुमने जो मेरे सन्देश को रद्द किया है, इसका ज़िक्र किसी से न करना, ताकि मक्का के सरदार इसको सुनकर और ज़्यादा शेर न हो जाएँ।”

फिर उसके बाद आप (सल्ल.) को ताइफ़ की बस्ती से निकाल दिया गया। जब आप उस बस्ती से निकल रहे थे तो उन्होंने शोहदों, ग़ुंडों और बदमाशों को आप (सल्ल.) के पीछे लगा दिया और वे पत्थर लेकर निशाना लगा-लगाकर आप (सल्ल.) को मारने लगे, वे आपके पैरों और पिंडलियों को निशाना बना रहे थे, साथ ही आप (सल्ल.) का उपहास भी करते जा रहे थे।

कल्पना कीजिए, कैसा दुखद दृश्य रहा होगा, कितनी उपेक्षा की जा रही थी, कैसा अपमान किया जा रहा था। उस समय हज़रत ज़ैद (रज़ि.) आप (सल्ल.) के साथ थे और वह पत्थरों से आप (सल्ल.) को बचाने की कोशिश भी कर रहे थे, लेकिन वे बदमाश आप (सल्ल.) के पैरों को निशाना बना-बनाकर मारते ही जा रहे थे, यहाँ तक कि आप (सल्ल.) के पाँव लहू-लुहान हो गए और आपके मुबारक जूते ख़ून से भर गए। कभी-कभी आप (सल्ल.) बिल्कुल निढाल होकर बैठ जाते, वे लोग आपको फिर खड़ा कर देते और फिर पत्थरों की बारिश होती। आख़िरकार नबी (सल्ल.) ताइफ़ से बाहर आए और अंगूर के बाग़ में एक पेड़ से टेक लगाकर बैठ गए।

नबी (सल्ल.) जिस बाग़ में बैठ गए थे वह रबीआ के बेटे उत्बा और शैबा का बाग़ था। उनको आप (सल्ल.) की तकलीफ़ का एहसास हुआ और उन्होंने अपने ईसाई ग़ुलाम अद्दास को बुलाया और कहा, “अद्दास, ये अंगूर उस व्यक्ते के पास ले जाओ और उसे खिला दो।”

अद्दास वे अंगूर लेकर आए। नबी (सल्ल.) के पास उस समय पीने को पानी तक न था, आपने सोचा कि इन अंगूरों से कुछ प्यास तो बुझे, फिर आपने ‘बिस्मिल्लाह’ कहकर हाथ बढ़ाया।

ये शब्द सुनकर अद्दास चकित रह गया। सोचने लगा, ‘ये शब्द तो यहाँ कोई प्रयुक्त नहीं करता है।’ उसके बाद नबी (सल्ल.) ने उससे पूछा, “तुम कौन हो? कहाँ के रहने वाले हो? किस मज़हब के माननेवाले हो?”

अद्दास ने कहा, “मैं ईसाई हूँ। मैं ईसा मसीह का अनुयायी हूँ और नैनवा का रहनेवाला हूँ।”

आप (सल्ल.) ने कहा, “अच्छा नैनवा, यानी यूनुस (अलैहि.) की बस्ती…”

अद्दास चकित रह गया। पूछा, “आप उनको कैसे जानते हैं?”

आप (सल्ल.) ने कहा, “वह मेरे भाई हैं। वह भी अल्लाह के नबी हैं, मैं भी अल्लाह का नबी हूँ।”

अद्दास आप (सल्ल.) से बहुत अधिक प्रभावित हो गया था। उसने कहा, “ख़ुदा की क़सम, इस बस्ती में तो कोई भी इस प्रकार की बात नहीं कर सकता। मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि आप अल्लाह के रसूल हैं।” और ‘अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाह व अश्हदु अन-न मुहम्मदर्रसूलुल्लाह’ कहकर उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया। फिर उसके बाद वे आपका ललाट चूमने लगा, हाथों और पैरों को चूमने लगा, वह बिल्कुल आपके लिए जैसे बिछा जा रहा था।

जब अद्दास अपने मालिकों के पास पहुँचा, तो उन्होंने उसकी बदली हुई स्थिति को जानकर उससे पूछा, “अद्दास, यह तुमने क्या किया? तुम उस अजनबी व्यक्ति के हाथों और ललाट को क्यों चूम रहे थे?”

अद्दास बोला, “वह व्यक्ति अल्लाह का पैग़म्बर ही हो सकता है, पैग़म्बर ही वह बात बता सकता है जो उसने मुझे बताई?”

वे लोग बोले, “देखो, कहीं तुम उसके धोखे में न आ जाना। तुम्हारा धर्म उसके धर्म से अच्छा है।”

यह भी अल्लाह की बड़ी कृपा थी कि एक ऐसे समय जब ताइफ़ वालों ने आप (सल्ल.) को धक्के देकर ताइफ़ से निकाल दिया था, फिर लंपटों के द्वारा आप (सल्ल.) को सताया गया यहाँ तक कि आप (सल्ल.) के पाँव लहू-लुहान हो गए, वहीं एक सद्बुद्धि रखनेवाले ईसाई ग़ुलाम अद्दास ने आपको न केवल पहचान लिया, बल्कि इस्लाम क़ुबूल करके आपका संबल बन गया।

हमें भी आज अल्लाह के सन्देश को अल्लाह के तमाम बन्दों तक पहुँचाना है और इस मार्ग में जो भी मुश्किलें और मुसीबतें हमको सहनी पड़ें उनपर हमें सब्र करना है। अल्लाह तआला हम सबको हिम्मत दे, ताक़त दे और तमाम मुश्किलों और मुसीबतों के बावजूद अल्लाह के दीन का समर्थन करने और सच्चे दिल से इस्लाम के सन्देश को तमान लोगों तक पहुँचाने वाला बनाए। आमीन

व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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