The Prophet’s Courage and Determination || Maulana Ejaz Ahmed Aslam || SADAA Times
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) का साहस और दृढ़ संकल्प
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)
प्रिय दर्शको, आप सबको मेरा सलाम।
आज आपके सामने नबी (सल्ल.) से पहले के दौर के बारे में कुछ बातें पेश की जाएँगी, जिसमें आप (सल्ल.) कि विरोध शुरू हो गया, लेकिन आप (सल्ल.) ने उस समय दृढ़ संकल्प का प्रदर्शन किया। क़ुरैश के लोग अगरचे कम पढ़े-लिखे थे, लेकिन जागरूक लोग थे, वे जाड़े के मौसम में यमन, अफ़्रीक़ा और भारत की ओर आते थे, भारत में केरल आते थे, गुजरात के समुद्रतट तक आते थे, और गर्मी के मौसम में फ़िलस्तीन, मिस्र और रोम तक जाते थे। उनकी ये यात्राएँ व्यापार के उद्देश्य से होती थीं। वे दुनिया की थोड़ी-बहुत जानकारी भी रखते थे, यहूदियत को भी जानते थे, ईसाइयत को भी जानते थे। यहूदी तो मदीना में भी थे। रोम की सभ्यता उन दिनों पतन की ओर अग्रसर थी। उनकी बड़ी-बड़ी इमारतों को भी देखते थे, मतलब यह कि दुनिया की जानकारी थी उन्हें।
जब नबी (सल्ल.) ने इस्लाम के सन्देश को पेश किया तो बातें हुईं। एक तो क़ुरैश अपने पुराने विचारों और धारणाओं को छोड़ने को तैयार न थे, दूसरे काबा को पूरे अरब में एक केन्द्रीय स्थान प्राप्त था। उसके आसपास भाँति-भाँति की लगभग 360 मूर्तियाँ लाकर रख दी गई थीं। काबा के अन्दर इब्राहीम (अलैहि.) की तस्वीर बना दी गई थी और उनके हाथ में ‘फ़ाल’ के तीर दिखाए जा रहे थे। इस प्रकार की चीज़ें थीं। चुनाँचे क़ुरैश में एक हलचल मच गई थी। वे सोचते कि ‘अपने बाप-दादा के दीन (धर्म) को कैसे छोड़ दें। इस चालीस वर्ष के व्यक्ति की बात, जो उम्रे में हमसे छोटा है, हम कैसे मान लें। हमारी सत्ता समाप्त हो जाएगी, हमारा नेतृत्व ख़त्म हो जाएगा। हमें जो सारे अरब में एक बड़ा स्थान प्राप्त है, हम ऊँचे लोग समझे जाते हैं, यह चीज़ ख़त्म हो जाएगी। चुनाँचे उन्होंने विरोध किया और इसके लिए विभिन्न प्रकार के तरीक़े अपनाए और लड़ने-मरने पर आमादा हो गए। यह विरोध इतना बढ़ा कि उन्हें लगा कि इस समस्या को ख़त्म कर देना चाहिए। इस समस्या का इलाज यही है चुनाँचे आप (सल्ल.) का उपहास किया गया, झूठा प्रोपेगंडा किया गया, आप (सल्ल.) की बातों का खंडन किया गया और हाल यह था कि अल्लाह तआला की ओर से तर्कों पर आधारित आयतें लगातार अवतरित हो रही थीं, जिनमें कहा जा रहा था कि कायनात पर ग़ौर करो, अपने जीवन पर ग़ौर करो, अपने जन्म पर ग़ौर करो, अपने अस्तित्व पर ग़ौर करो। पूछा गया—
“बहुत से रब और ख़ुदा हैं या एक अल्लाह, जो अकेला है और पूरी शक्ति एवं सामर्थ्य रखता है?”
आख़िरकर लोगों ने कहा, “यह हमारे समाज में बड़ी गड़बड़ हो रही है, बहुत से लोग मुहम्मद का अनुपालन कर रहे हैं। बाप बेटे से जुदा हो गया है, भाई-भाई से जुदा हो गया है। अब हमें मुहम्मद पर हमला करना चाहिए।” लेकिन फिर ख़याल आया कि ‘अबू तालिब जो क़ुरैश के अति प्रतिष्ठित सरदार हैं, क्यों ने एक बार उनके पास जाकर कहें।”
फिर उन्होंने अबू तालिब के पास जाकर कहा कि देखिए आपका भतीजा ये और ये कह रहा है। क्या हमारे बाप-दादा मूर्ख थे। अब तक हम जिन बातों को अपने सीने से लगाए हुए थे, क्या वे सब बातें ग़लत थीं? क्या बुद्धि केवल उसी के पास है, हमारे पास नहीं है?”
उन्होंने अबू तालिब से कहा, “निश्चय ही आप हमारे लिए अति आदरणीय एवं प्रतिष्ठित हैं। हमारे मार्गदर्शक और सरदार हैं। आप या तो रास्ते से हट जाइए फिर हम मुहम्मद से निबट लेंगे, या फिर अपने भतीजे को समझाइए।”
उस हज़रत अबू तालिब काफ़ी बूढ़े हो चुके थे, 60-70 साल या उससे भी अधिक आयु रही होगी। उन्होंने अल्लाह के रसलू (सल्ल.) को बुलाया और कहा, “ऐ मेरे प्यारे बेटे, ऐ चचा की जान, देखो, आज तुम्हारी क़ौम के कुछ बुज़ुर्ग लोग आए थे, उन्होंने ये बातें कहीं हैं कि तुम्हारा आमंत्रण उनको पसन्द नहीं है, वे केवल एक ख़ुदा की इबादत करने के लिए तैयार नहीं हैं, वे अपने पूर्वजों की परंपराओं को छोड़ना नहीं चाहते, वे जिन राहों पर चल रहे थे उन्हीं राहों पर चलते रहना चाहते हैं। मेरे प्यारे भतीजे, तुम मुझे अपने प्राणों से भी प्रिय हो, देखो, इस बुढ़ापे में मुझपर इतना बोझ न डालो कि मैं सहन न कर सकूँ।”
इसके जवाब मे नबी (सल्ल.) ने पूरे पूरे आत्मविश्वास के साथ दृढ़ स्वर में कहा, “चचाजान, यह फ़र्ज़ मुझपर अल्लाह की तरफ़ से डाला गया है, जिसको मैं निभा रहा हूँ। अल्लाह तआला (इस्लाम की) इस रौशनी को फैलाएगा और इसे पूरा करके रहेगा। मैं इन लोगों के साथ कोई समझौता नहीं करूँगा। चचाजान, ख़ुदा की क़सम! अगर मेरे एक हाथ पर सूरज लाकर रख दिया जाए और दूसरे हाथ पर चाँद, तो भी मैं लोगों को अल्लाह की ओर पुकारने से पीछे नहीं हटूँगा! या तो मेरा यह सन्देश अपने चरम तक पहुँचेगी, दुनिया के लोग इस सन्देश को स्वीकार करेंगे, या इस काम को करते-करते मैं अपनी जान देदूँगा।”
भतीजे के इस दृढ़ संकल्प देखकर बूढ़े चचा अबू तालिब का दिल भर आया। उन्होंने कहा, “भतीजे, जाओ अपना काम करो, अपना सन्देश लोगों को सुनाओ।”
निश्चय ही आप (सल्ल.) का दृढ़संकल्प हमारे लिए एक मिसाल है। आप (सल्ल.) सारी दुनिया से लोहा लेने के लिए तैयार थे और अधर्म के, अत्याचार के, गुनाह के, घमंड के, इन सबके लश्करों के साथ अकेले मुक़ाबला करने को तैयार थे।
अल्लाह तआला की असीम कृपा हो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर, उनके उन जान न्योछावर करनेवाले साथियों पर जिन्होंने बुद्धि का प्रयोग किया और आपके हाथों में अपना हाथ दे दिया और बाद के आनेवालों पर भी और मुस्लिम समाज के आरंभिक लोगों पर भी। अल्लाह से दुआ है कि हमें भी इस्लाम के सन्देश को आज के इस विशाल संसार में विभिन्न देशों में करोड़ों लोगों के सामने पेश करने का सौभाग्य प्रदान करे। और इस काम में हमे धैर्य एवं दृढ़ता प्रदान कर। जब तक ज़िन्दा रख, इस्लाम और अपने आज्ञापालन पर ज़िन्दा रख, और मौत दे तो तेरे ही नाम पर मौत दे। आमीन, या रब्बल आलमीन।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।