अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की माँ और दादा की मौत
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)
प्रिय दर्शको, आप सबका स्वागत है।
नबी (सल्ल.) के जीवन का एक और पहलू आपके सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। जैसा कि आप जानते हैं कि आपके पिता का आपके जन्म से पहले ही देहांत हो गया था, जो एक सफ़र पर थे और उसी सफ़र के दौरान उनका इंतिक़ाल हो गया था, फिर वहीं वे दफ़न कर दिए गए थे। आपकी माँ ने सोचा कि बच्चे के साथ जाकर अपने उस ख़ानदान से मिलें। आप (सल्ल.) के दादा अब्दुल मुत्तलिब का नानिहाल मदीने के निकट था, उनका संबंध बनू-नज्जार नामक क़बीले से था। अतः वे आप (सल्ल.) को वहाँ लेकर गईं और एक-दो महीने वहाँ रहीं। वहीं पर हज़रत आप (सल्ल.) के पिता हज़रत अब्दुल्लाह की क़ब्र थी जो एक व्यापारिक क़ाफ़िले में वापस आते हुए इंतिक़ाल कर गए थे।
नबी (सल्ल.) उस समय छः साल के थे, जब उन्हें अपने पिता के बारे में मालूम हुआ। हज़रत आमिना ने अपने पति की क़ब्र की ज़ियारत की और बच्चे को भी दिखाया। बच्चे को जीवन की इन सच्चाइयों का पता चला कि मौत भी कुछ होती है, दुख भी कुछ होता है, और जुदाई भी कुछ होती है और अनाथपन भी कुछ होता है। लेकिन अल्लाह तआला की मर्ज़ी।
وَمَا كَانَ لِنَفْسٍ اَنْ تَمُـوْتَ اِلَّا بِـاِذْنِ اللہِ
“और अल्लाह की अनुज्ञा के बिना कोई व्यक्ति मर नहीं सकता।” (क़ुरआन, 3/145)
क्योंकि मौत का समय निश्चित है। हज़रत आमिना वापसी के सफ़र में थीं कि ‘अबवा’ नामक स्थान पर वे बीमार हुईं और फिर उन्होंने वहीं अपने प्राण त्याग दिए। प्यारे नबी (सल्ल.) को अपनी माँ की मौत का सदमा सहन करना पड़ा। अभी बाप की क़ब्र देखी थी, और अब सफ़र की हालत में माँ की मौत का सदमा भी आप (सल्ल.) को सहन करना पड़ा।
आमिना के इंतिक़ाल के बाद उनकी बाँदी (दासी) उम्मे-ऐमन ने आप (सल्ल.) को अपने संरक्षण में लिया और मदीने से मक्का का लगभग 400 किलोमीटर का लम्बा सफ़र करके आईं और आप (सल्ल.) अपने दादा से लिपट गए, क्यों बाप को तो आप (सल्ल.) ने देखा ही नहीं था, और माँ का साथ भी छूट गया था। आप (सल्ल.) अनाथ और बेसहारा हो गए थे। ऐसे में केवल दादा ही आपका सहारा थे। फिर दादा अब्दुल मुत्तलिब ने आप (सल्ल.) को अपने संरक्षण में ले लिया और माँ की ममता और बाप का साया दोनों आपको देने की कोशिश की।
हरम में काबा के पास आम सभाएँ होती थीं, लोग इकट्ठा होते थे। चूँकि अब्दुल मुत्तलिब एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे इसलिए उन्हें एक विशेष आसन पर बिठाया जाता था, जिसपर बैठने का कोई साहस न करता था, परन्तु वे आप (सल्ल.) को अपने पास उसी आसन पर बिठा लेते थे।
और फिर एक बार फिर आप (सल्ल.) को एक दुख झेलना पड़ा। यह दुख था प्यारे दादा की मौत का दुख। दुख-दर्द क्या होता है, अभाव और महरूमी क्या होती है, यतीमी क्या होती है, इन सब अनुभवों से अल्लाह तआला आप (सल्ल.) को गुज़ार रहा था, जिनको एक दिन दुनिया के तमाम ग़रीबों, मजबूरों और परेशान हाल लोगों का संरक्षक बनना था। उस समय आप (सल्ल.) आठ वर्ष के थे जब आपके दादा का भी इंतिक़ाल हो गया। आप (सल्ल.) इस दुख पर तड़प-तड़पकर रोए। सारे सहारे टूटते हुए दिखाई दे रहे थे, बच्चे को मौत का मतलब अच्छी तरह समझ में आ गया था। उस पल में हज़रत अली (रज़ि.) के पिता और आप (सल्ल.) के चचा अबू तालिब ने आपको सहारा दिया और आप (सल्ल.) को अपने संरक्षण में ले लिया।
दुरूद और सलाम हो, अल्लाह तआला की हज़ारों नेमतें हों मुहम्मद (सल्ल.) पर।