नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली एक मुस्लिम महिला की याचिका पर नोटिस जारी किया है।
याचिकाकर्ता रजिया नाज के अनुसार, 2 जून को भेजे गए तलाक-ए-हसन के नोटिस को एकतरफा अतिरिक्त न्यायिक तलाक के रूप में अमान्य घोषित करने और अनुच्छेद 14, 15, 21 के विपरीत असंवैधानिक, मनमाना, तर्कहीन घोषित करने के लिए याचिका दायर की गई है। इसके साथ ही मानव नागरिक अधिकारों के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के प्रावधानों को देखते हुए भी इसे गलत एवं तर्कहीन ठहराया गया है।
याचिका पर विचार करने के बाद न्यायाधीश दिनेश कुमार शर्मा ने हाल के एक आदेश में दिल्ली पुलिस और प्रतिवादी-पति शहंशाह आलम खान से जवाब मांगा।
तदनुसार, मामले को 18 अगस्त के लिए रोस्टर बेंच के समक्ष रखा गया है। दिल्ली पुलिस की ओर से वकील रचिता गर्ग पेश हुईं और नोटिस को स्वीकार कर लिया।
अधिवक्ता अश्विनी कुमार दुबे के माध्यम से एकतरफा अतिरिक्त न्यायिक तलाक-ए-हसन का शिकार होने का दावा करने वाली एक मुस्लिम महिला हीना बेनजीर की भी इसी तरह की याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
दलील में तर्क दिया गया कि तलाक-ए-हसन और एकतरफा अतिरिक्त-न्यायिक तलाक के अन्य रूपों की प्रथा न तो मानव अधिकारों और लैंगिक समानता के आधुनिक सिद्धांतों के साथ मेल खाती है, न ही इस्लामी आस्था का एक अभिन्न अंग है।
तलाक-ए-हसन के तहत एक पुरुष अपनी पत्नी को महज तलाक बोलकर तलाक दे सकता है।
यह एकतरफा अतिरिक्त न्यायिक प्रथा है, जिसके कारण अक्सर महिलाओं को उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है।
याचिकाकर्ता ने इस साल फरवरी में दिल्ली महिला आयोग में एक शिकायत दर्ज कराई थी और अप्रैल में एक प्राथमिकी भी दर्ज कराई थी और दावा किया था कि पुलिस ने उसे बताया कि शरीयत के तहत एकतरफा तलाक-ए-हसन की अनुमति है।
याचिका में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 का जिक्र करते हुए शादी से संबंधित मामलों में एक गलत धारणा व्यक्त करने का दावा किया गया है। इसमें तलाक-ए-हसन को एकतरफा अतिरिक्त-न्यायिक तलाक करार दिया गया है, जो विवाहित मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों के लिए हानिकारक भी बताया गया है।
याचिका में कहा गया है कि संविधान न तो किसी समुदाय के पर्सनल लॉ को पूर्ण संरक्षण देता है और न ही पर्सनल लॉ को विधायिका या न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से छूट देता है।
दलील में तर्क दिया गया है कि तलाक-ए-हसन और एकतरफा अतिरिक्त-न्यायिक तलाक के अन्य रूपों की प्रथा न तो मानव अधिकारों और लैंगिक समानता के आधुनिक सिद्धांतों के साथ मेल खाती है, न ही इस्लामी आस्था का एक अभिन्न अंग है।
याचिका में कहा गया है, कई इस्लामी राष्ट्रों ने इस तरह के अभ्यास को प्रतिबंधित कर दिया है, जबकि यह सामान्य रूप से भारतीय समाज और विशेष रूप से याचिकाकर्ता की तरह मुस्लिम महिलाओं को परेशान करना जारी रखे हुए है। यह प्रस्तुत किया जाता है कि यह प्रथा कई महिलाओं और उनके बच्चों, विशेष रूप से समाज के कमजोर आर्थिक वर्गों से संबंधित लोगों के जीवन पर कहर बरपाती है।
—आईएएनएस

