हिजरत की यात्रा में घटनाएँ
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)
اَللّٰہُمَّ صَلِّ عَلٰی مُحَمَّدٍ وَّعَلٰی اٰلِ مُحَمَّدٍ وَّ بَارِکْ وَسَلَّمْ
“ऐ अल्लाह, दयालुता की बारिश कर मुहम्मद पर, आपकी सन्तान पर, आपके अनुयायियों पर और उनको बरकत और सलामती प्रदान कर।”
नबी (सल्ल.) मक्का को छोड़कर मदीना जा चुके थे। इस बारे में एक और बात उल्लेखनीय है, वह यह कि हर व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से अपने घर-बार से, अपने गाँव से, अपने रिश्तेदारों से, दोस्तों से, अपने वतन से मुहब्बत होती है।—वतन एक व्यापक शब्द है। वतन छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी हो सकता है। आप चाहें तो अपने गाँव या शहर को अपना वतन कहें, या फिर उस पूरे देश को भी अपना वतन कह सकते हैं, जिसके किसी शहर या गाँव में आपने जन्म लिया है। लेकिन जहाँ तक हम मुसलमानों का संबंध है, हमारा तो यह मानना है कि यह पूरी धरती अल्लाह की बनाई हुई है, इस दृष्टि से यह पूरी धरती ही हमारा वतन है। अल्लामा इक़बाल ने इसी बात को अपने एक शेअर में कहा है, “हर मुल्क मुल्के-मास्त कि मुल्के-ख़ुदाए-मास्त” (हर मुल्क मेरा मुल्क है क्योंकि मेरे ख़ुदा का मुल्क है)— नबी (सल्ल.) ने मक्का छोड़ते समय ‘सौर’ गुफा से मदीना की ओर जाते समय मक्का पर एक आख़िरी निगाह डाली और कहा, “ऐ मक्का, ख़ुदा की निगाह में तू सबसे ज़्यादा मुबारक जगह है। अगर तेरे रहनेवाले मुझे यहाँ से नहीं निकालते तो मैं हरगिज़ यहाँ से न निकलता।”
लेकिन अल्लाह तआला की पुकार वतन को छोड़ने और एक नया वतन आबाद करने का आमंत्रण दे रही थी। नबी (सल्ल.) सफ़र करते रहे तो एक घटना घटित हुई। सुराक़ा-बिन-जोशम एक ज़बरदस्त घुड़सवार था। वह आप लोगों को देखकर समझ गया कि यही वे दो लोग (हज़रत मुहम्मद और अबू-बक्र सिद्दीक़) हैं जिनके बारे में 100 ऊँटों की घोषणा की गई है। उसने आप (सल्ल.) पर हमला करने के लिए भाला निकाला और वार करने का प्रयास किया लेकिन तभी उसके घोड़े ने ठोकर खाई और लगातार कई ठोकरें खाईं, उसके पैर रेत में धंस गए थे। प्राकृतिक रूप से मिलनेवाली इस विफलता से सुराक़ा समझ गया कि यहाँ मामला कुछ और है। वह तुरन्त (सल्ल.) के क़रीब आया और कहा, “मुझे पनाह दीजिए।” उसे अपनी जान को ख़तरा लगने लगा था। नबी (सल्ल.) ने सुराक़ा से कहा, “सुराक़ा, तेरी क्या शान होगी उस वक़्त जब किसरा के कंगन तेरे हाथ में डाले जाएँगे।”—इस घटना के 25 वर्ष बाद आप (सल्ल.) की यह भविष्यवाणी हज़रत उमर (रज़ि.) की ख़िलाफ़त के ज़माने में सच हो गई।—नबी (सल्ल.) ने कहा कि इसको ‘पनाह’ लिखकर दो। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) ने उसे अमान नामा (शरण-पत्र) लिखकर दिया और फिर फ़त्हे-मक्का (मक्का-विजय) के दिन यह शरण-पत्र उसके काम आया।
इसी यात्रा के दौरान आप (सल्ल.) का गुज़र ‘क़ुज़ाअ’ नामक क़बीले की एक महिला उम्मे-माबद के घर से हुआ। आप (सल्ल.) उसके घर पर ठहरे और पूछा कि “क्या तुम्हारे पास दूध वग़ैरा कुछ है?” उसने कहा, “देखिए, एक सूखी सी बकरी है, जिसमें दूध बिल्कुल नहीं है। होता तो मैं ख़ुद आपकी सेवा में पेश कर देती। मैं पानी के सिवा आपको कुछ भी नहीं दे सकती हूँ।”
नबी (सल्ल.) ने कहा, “तुम अगर इजाज़त दो तो उस बकरी को हम देखें?” वह महिला इसके लिए तैयार हो गई और उसने अपनी बकरी नबी (सल्ल.) को दिखाई। नबी (सल्ल.) ने उस बकरी के थनों पर हाथ फेरा। आप (सल्ल.) के हाथ फेरते ही बकरी के थन दूध से भर गए। आप (सल्ल.) ने उससे दूध निकाला, अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) को पिलाया, ख़ुद पिया और फिर दूहा और दूध से भरा हुआ बरतन उम्मे-माबद को पेश किया। इसके बाद भी उसके थन दूध से इस तरह भरे रहे, जैसे उनसे दूध निकाला ही नहीं गया हो।
आप (सल्ल.) के वहाँ से प्रस्थान करने के बाद उम्मे-माबद के पति आए और पूछा, “यह दूध कैसा है?” उम्मे-माबद ने कहा, “एक व्यक्ति यहाँ आया था, जो अत्यंत सुन्दर होने के साथ-साथ बहुत शरीफ़ भी था। वह हमारे लिए बहुत मुबारक (शुभ) साबित हुआ।” वह आप (सल्ल.) से बहुत प्रभावित हुई थी। फिर आगे चलकर इन दोनों ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया था।
नबी (सल्ल.) के एक साथी हज़रत ज़ुबैर-बिन-अव्वाम (रज़ि.) शाम (सीरिया) की व्यापारिक यात्रा से वापस आ रहे थे। वे नबी (सल्ल.) से मिले आपको और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि.) को सीरिया से लाए हुए सफ़ेद वस्त्र पेश किए। फिर आप (सल्ल.) आगे बढ़े। रास्ते में एक घटना और घटी। असलम नामक क़बीले का एक व्यक्ति जिसका नाम बुरैदा था, सत्तर व्यक्तियों के साथ भाले और तलवारें लेकर नबी (सल्ल.) की तलाश में निकला। उसकी भेंट नबी (सल्ल.) से हुई। आप (सल्ल.) ने पूछा, “तुम कौन हो?” वह बोला, “मैं क़बीला बनी-असलम से संबंध रखता हूँ।” आप (सल्ल.) ने कहा, “असलम?….मतलब बहुत बड़ी सलामती?”
अपने क़बीले की तारीफ़ सुनकर वह व्यक्ति आप (सल्ल.) से बहुत प्रभावित हुआ। फिर आप (सल्ल.) ने उसके सामने इस्लाम की शिक्षाएँ पेश कीं। आख़िरकार उसने और उसके तमाम साथियों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। इसके बाद वह बोला, “मैं आपका झंडा लेकर चलता हूँ। यह ठीक न होगा कि आप मदीना में इस प्रकार अकेले प्रवेश करें।”
नबी (सल्ल.) ने उसको अपना अमामा भाले पर लगाकर दे दिया, और उसने उसे झंडे की तरह ऊपर उठा लिया और तेज़-तेज़ चलने लगा। साथ ही वह कहता जा रहा था,“अल्लाहु अकबर (अल्लाह सबसे बड़ा है), अम्न का सरताज आ रहा है, सुलह का समर्थक आ रहा है, दुनिया को इंसाफ़ से भर देनेवाला आ रहा है।”
मदीना में नबी (सल्ल.) के आने की ख़बरें पहुँच चुकी थीं और वहाँ के लोग रोज़ हुदा की घाटियों में पहुँचकर आपकी प्रतीक्षा करते थे। वे ऊँचे-ऊँचे वृक्षों पर चढ़कर देखा करते थे, ताकि दूर तक का दृश्य दिखाई दे। एक दिन ऐसे ही वे लोग देख रहे थे कि दूर से कुछ धूल सी उठती हुई महसूस हुई, फिर दो आकृतियाँ प्रकट हुईं और फिर उनमें से एक यहूदी, जो किसी ऊँचे पेड़ पर चढ़ा हुआ था, बोल उठा, “अरे, ये तो वही बुज़ुर्ग हैं, जिनके आने का तुम लोग इंतिज़ार कर रहे थे।”
यह सुनकर वहाँ मौजूद सभी लोग ख़ुशी-ख़ुशी आगे बढ़ने ले। वे दफ़ (डफली) बजाते जा रहे थे, महिलाएँ भी उनके स्वागत में कविताएँ पढ़ने लगीं। लोग आज सज-धजकर आए थे और उस समय नबी करीम (सल्ल.) 14 दिन तक क़ुबा में ठहरे, एक मस्जिद की आधारशिला रखी, जो आज मस्जिदे-क़ुबा के नाम से प्रसिद्ध है, और वहाँ जुमा की नमाज़ भी पढ़ाई।
मस्जदे-क़ुबा के बारे में अल्लाह तआला ने क़ुरआन में कहा है, “यह वह मस्जिद है जिसकी बुनियाद तक़वा (ईशभय) पर है।”
नबी (सल्ल.) के सहाबा और ख़ुद आप (सल्ल.) पत्थर और गारा ढो-ढोकर ला रहे थे। फिर उसके बाद जुमा की नमाज़ में आपने बड़ा प्रभावशाली ख़ुत्बा (अभिभाषण) भी दिया और उसके बाद वहाँ से मदीना की ओर चले, जहाँ आप (सल्ल.) का भरपूर स्वागत किया गया। हर व्यक्ति कोशिश करता था कि आपकी ऊँटनी की नकेल को पकड़े और उसको नबी करीम (सल्ल.) का मेज़बान बनने का सौभाग्य प्राप्त हो।
आप (सल्ल.) ने कहा, “इसको छोड़ दो। इसे अल्लाह जहाँ चाहेगा, वहाँ ले जाएगा।” फिर थोड़ा इधर-उधर होने के बाद वह ऊँटनी अबू-अय्यूब अंसारी (रज़ि.), जो कोई बहुत अमीर व्यक्ति नहीं थे, बल्कि एक मध्यम वर्ग के व्यक्ति थे, उनके दरवाज़े के सामने बैठ गई और उन्हीं को आप (सल्ल.) का मेज़बान बनने का सौभाग्य मिला।
अल्लाह तआला की बेहतरीन रहमतें बरसें मदीना के उन लोगों पर जो नबी (सल्ल.) से मुहब्बत करते थे, जिन्होंने आप (सल्ल.) को मदीना आने का निमंत्रण दिया और जिन्होंने अपना तन, मन और धन नबी (सल्ल.) और आपके महान सहाबियों की सेवा में लगा दिया।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।