हज़रत हमज़ा (रज़ि.) का इस्लाम क़ुबूल करना

Hamza Embraces Islam || Maulana Ejaz Ahmed Aslam || SADAA Times

हज़रत हमज़ा (रज़ि.) का इस्लाम क़ुबूल करना

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)

अल्लाहुम-म सल्ले अला मुहम्मदिवँ वला आले मुहम्मद व बारिक वसल्लम।

“ऐ अल्लह, रहमत (दयालुता) की बारिश कर मुहम्मद (सल्ल.) पर।”

प्रिय दर्शको, आज की प्रस्तुति का शीर्षक है ‘हज़रत हमज़ा (रज़ि.) का इस्लाम क़ुबूल करना’। हज़रत मुहम्मद को अल्लाह की ओर से पैग़म्बरी मिले हुए 6 वर्ष बीत चुके थे, मुश्किलें और परेशानियाँ बढ़ती जा रही थीं। लोग धीरे-धीरे इस्लाम की सच्चाई जानकर उसे स्वीकार करते जा रहे थे। इस संघर्ष भरे माहौल में एक दिन नबी (सल्ल.) कहीं जा रहे थे कि रास्ते में अबू-जहल मिल गया। वह मक्का का एक बहुत बड़ा सरदार था, और अपने धन, संपत्ति और रुतबे का उसे बहुत घमंड था। वह इस्लाम का बहुत बड़ा दुश्मन था। नबी (रज़ि.) को देखते ही उसने उन्हें बुरा-भला कहना शुरू कर दिया। गालियाँ तक दीं। नबी (सल्ल.) ने, क़ुरआन के इस आदेश पर कि “ऐ नबी, जो बातें ये लोग आपके ख़िलाफ़ बनाते हैं, उनपर सब्र कीजिए और शराफ़त के साथ उनसे अलग हो जाइए।” अबू-जहल को कोई जवाब न दिया और चुपचाप वहाँ से चले गए। अगरचे आपको कष्ट तो हुआ होगा। हर संवेदनशील व्यक्ति को उसके अपमान पर कष्ट होता है, यह बात हम और आप भी समझते हैं। फिर नबी (सल्ल.) तो अत्यंत संवेदनशील थे। आप (सल्ल.) के दिल में तो सारी मानवता का दर्द समाया हुआ था। आप (सल्ल.) के बारे में वह शेअर इस्तेमाल किया जा सकता है—

ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर
सारे जहाँ का दर्द हमारे जहाँ में है

वहाँ हज़रत अब्दुल्लाह तैमी (रज़ि.), जो हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) के चचेरे भाई थे, उनकी एक लौंडी (दासी) भी थी, वह यह सब कुछ देख रही थी। और आप जानते हैं कि इस्लाम सबसे पहले उन लोगों को आकर्षित करता है जो दबे और कुचले हुए हैं, जिनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। ऐसे लोग जब अल्लाह के दीन इस्लाम को अपनाते हैं तो सब कुछ उनको मिल जाता है, सारा जहान मिल जाता है, आख़िरत मिल जाती है, अल्लाह का संरक्षण मिल जाता है। उस लौंडी को यह बात बहुत बुरी लगी, उसका दिल भर आया, क्योंकि उसे अल्लाह के रसूल (सल्ल.) से मुहब्बत थी, अगरचे वह मजबूर थी और खुल्लम-खुल्ला इस्लाम स्वीकार करने का एलान न कर सकती थी। और अगर वह कुछ एतिराज़ करती भी तो उसे डर था कि उसका मालिक उसे मार-मारकर बेदम कर देगा।

शाम के समय हज़रत हमज़ा (रज़ि.) शिकार से वापस आ रहे थे। वे काफ़ी बलशाली और लड़ाई के माहिर थे। उनके तीर कमान उनके साथ थे। वे काबा का तवाफ़ (परिक्रमा) करने के लिए जा रहे थे। अब्दुल्लाह तैमी की वह लौंडी उनसे बोली, “अबू उमारा, आख़िर आप लोगों का स्वाभिमान कहाँ चला गया कि बनी-मऊसुम के ग़ुंडे मुहम्मद (सल्ल.) को इतनी ढिठाई से सता रहे हैं?”

हज़रत हमज़ा (रज़ि.) चलते-चलते रुक गए और पूछा, “क्या कह रही हो?”

लौंडी ने कहा, “क्या बताऊँ, आज तुम्हारे भतीजे पर क्या बीती? मुहम्मद यहीं पर थे, कहीं से अबू-जहल भी आ गया। आते ही वह-वह गालियाँ दीं कि मैं तो शर्म से पानी-पानी हो गई। फिर इसी पर बस न किया, मुट्ठी भर कंकड़ ज़मीन से उठाए और बहुत ग़ुस्से से उनके मुँह पर फेंक मारे”

हज़रत हमज़ा (रज़ि.) ने पूछा, “क्या यह सब कुछ तेरे सामने हुआ? क्या तेरी आँखें और तेरे कान इसके गवाह हैं?”

लौंडी ने कहा, “हाँ मैंने अपनी आँखों से देखा है, अपने कानों से सुना है।”

हज़रत हमज़ा ग़ुस्से से लाल हो गए। लपककर मस्जिदे-हराम पहुँचे, न किसी को सलाम किया, न कोई और बात की। अबू-जहल पर निगाह पड़ गई, जो वहाँ सभा लगाए हुए बैठा था। हज़रत हमज़ा (रज़ि.) तेज़ी से उसके पास गए और अपनी कमान को खींचर उसके सिर पर मारा कि उसके सिर से ख़ून बहने लगा।

हज़रत हमरज़ा (रज़ि.) बोले, “वह मेरा भतीजा है, जिसे तूने लावारिस समझ रखा है, उसका चेहरा पत्थर खाने के लिए नहीं बना है, वह तेरी गालियाँ सुनने के लिए नहीं पैदा हुआ है।”

हज़रत हमज़ा (रज़ि.) बुरी तरह गरज रहे थे। अबू-जहल बोला, “जानते हो क्या किया है इस व्यक्ति ने? हमारे बाप-दादा को बेवक़ूफ़ ठहराया है। हमारे देवताओं तक को उसने नहीं छोड़ा और हमारे लौंडी-ग़ुलाम, हमारे अधीनस्थ नौकर, ये सब के सब उससे प्रभावित हो रहे हैं।”

इसके जवाब में हज़रत हमज़ा ने कहा, “तुमसे ज़्यादा भला कौन नादान होगा? तुम अल्लाह को छोड़कर बेजान मूर्तियों की पूजा करते हो?” उसके बाद कहा, “आज मैं खुल्लम-खुल्ला इस बात को स्वीकार करता हूँ कि मेरा जीना और मरना इस्लाम के लिए है। मैं मुहम्मद के हाथ में अपना हाथ देता हूँ। मैं आज से मुसलमान होता हूँ।”

इस दौरान कुछ लोगों ने बीच-बचाव करने का प्रयास किया और हज़रत हमज़ा (रज़ि.) को भी समझाने की कोशिश की, लेकिन वे एक बार जो संकल्प कर चुके थे, फिर उससे पीछे न हटे। संकल्पी व्यक्ति का संकल्प ऐसा ही होता है।

तो यह था हज़रत हमज़ा का इस्लाम क़ुबूल करना। उन्होंने जो संकल्प किया उसपर हमेशा क़ायम रहे, अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का साथ देते रहे, आप (सल्ल) के साथ हिजरत की यानी घरबार छोड़ा, बद्र की जंग में शरीक रहे, बल्कि बद्र की जंग की कमान नबी करीम (सल्ल.) के सहायक के रूप में हज़रत हमज़ा (रज़ि.) के हाथ में रही, यहाँ तक कि शाबान, 2 हिजरी में जो दूसरी जंग हुई, जिसमें 3000 दुश्मनों ने मदीना पर हमला किया और नबी (सल्ल.) ने केवल 700 लोगों को जमा करके उहुद पहाड़ के आँचल में इस्लाम दुश्मनों से मुक़ाबला किया। इस जंग में हज़रत हमज़ा (रज़ि.) शहीद हो गए।

हज़रत हमज़ा (रज़ि.) पर अल्लाह की दया एवं कृपा हो। उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के हाथ में अपना हाथ दिया और अपनी जान अल्लाह के सिपुर्द करके अपने ईमान का सुबूत पेश किया।

व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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