जाफ़र तय्यार (रज़ि.) नज्जाशी के दरबार में
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)
प्रिय दर्शको, आप सबको मेरा प्यार भरा सलाम।
यह सन् 5 नबवी का ज़िक्र है— हिज्री साल का मतलब होता है कि नबी (सल्ल.) के हिजरत करने के बाद जो साल शुरू हुआ, और नबवी सन् का मतलब होता है उस वक़्त से शुरू होनेवाला साल जब अल्लाह की ओर से मुहम्मद (सल्ल.) को नबी या पैग़म्बर बनाया गया।—ज़ुल्म सारी सीमाएँ लाँघ चुका था। ऐसे में नबी (सल्ल.) ने अपने उत्पीड़ित साथियों को सुझाव दिया कि तुम लोग अपना वतन (मक्का) छोड़कर हब्शा (इथोपिया) चले जाओ। यह लाल सागर के निकट स्थित है। आज भी मुसलमानों की एक बड़ी संख्या वहाँ आबाद है। वहाँ का ईसाई बादशह, जिसका नाम नज्जाशी था, बहुत दयालु प्रवृत्ति का था। अतः ये लोग पनाह लेने के लिए वहाँ पर गए और वहाँ रहकर कुछ काम-धाम करने लगे और एक तरह से वहीं बस गए।
अब मक्का के इस्लाम दुश्मनों ने देखा कि ख़तरा तो अब बढ़ता ही जा रहा है, फैल रहा है, इस्लाम का सन्देश अफ़्रीक़ा महाद्वीप में भी पहुँच चुका है। इस प्रकार तो हमारे लिए आगे मुश्किलें खड़ी हो जाएँगी। इसलिए उन्होंने एक प्रतिनिधिमंडल भेजा, जिसने नज्जाशी के दरबार में जाकर कहा कि “मान्यवर, हमारे कुछ अपराधी भागकर यहाँ आ गए हैं। उन्होंने आपके यहाँ पनाह ली है। उन्होंने हमारे बाप-दादा के दीन (धर्म) से बग़ावत की है और एक नए दीन को मानने लगे हैं। मान्यवर, घर वाले उनसे तंग आ चुके हैं। हमारी क़ौम के लोगों ने हमें उन्हें वापस लाने के लिए भेजा है।”
उनकी बातें सुनकर नज्जाशी ने कहा, “जो लोग हमारे पास पनाह लेने आए हैं, हम इस तरह तो उन्हें तुम्हारे हवाले नहीं कर सकते। उनके विचार क्या हैं, यह जानने के बाद हम सोचेंगे कि उनके साथ क्या करना चाहिए।” फिर नज्जाशी ने उन लोगों को बुलाकर पूछा, “सुना है तुम लोगों ने अपने बाप-दादा का दीन भी छोड़ दिया है और ईसाइयत को भी स्वीकार नहीं किया, अपना कोई नया दीन बनाया है, आख़िर वह दीन क्या है?”
नज्जाशी की बात सुनकर अबू-तालिब के बेटे और हज़रत अली (रज़ि.) के छोटे भाई हज़रत जाफ़र तय्यार (रज़ि.) खड़े हुए और उन्होंने कहा, “जहाँपनाह, हम लोग जाहिल थे, बुतों की पूजा करते थे, मुर्दार खाते थे, दुष्कर्म करते थे, बहुतों को सताते थे, आपस में झगड़ते थे, हममें से जो ताक़तवर थे वे कमज़ोरों को परेशान करते थे। अल्लाह ने हमपर दया की, उसने एक रसूल (पैग़म्बर) भेजा, उस रसूल के साथ एक किताब भी अवतरित की। हम उस रसूल के ख़ानदान को अच्छी तरह जानते थे, उसकी सच्चाई और अच्छे चरित्र से परिचित थे, उसने हमें सच्चे दीन (सत्य धर्म) की ओर बुलाया। उसने कहा, हम सब एक अल्लाह की इबादत करें, बेजान मूर्तियों को पूजना छोड़ दें, सच बोलें, ईमानदार बनें, रिश्तेदारों का ख़याल रखें, पड़ोसियों को आराम पहुँचाएँ, अन्याय एवं अत्याचार की नीति छोड़ दें, यतीमों (अनाथों) का माल न खाएँ, शरीफ़ औरतों पर लाँछन न लगाएँ, नमाज़ पढ़ें और ख़ैरात करें। हमने उस रसूल को सच्चा जाना और उसपर ईमान ले आए। अल्लाह की ओर से उसने जो कुछ बताया, हमने मान लिया। यही वह जुर्म है जिसकी वजह से हमारी क़ौम हमसे नाराज़ हो गई और हमको सताने लगी।”
अब इस्लाम दुश्मनों ने एक और चल चली। उन्होंने नज्जाशी से कहा, “ज़रा इनसे पूछिए कि ये हज़रत ईसा के बारे में क्या कहते हैं? ये ईसा को अल्लाह का बेटा नहीं मानते।”
नज्जाशी ने पूछा, “इस बारे में तुम लोगों के क्या विचार हैं?”
हज़रत जाफ़र तय्यार (रज़ि.) ने क़ुरआन की सूरा-19 मरयम की वे आयतें सुनाईं जिनमें ईसा (अलैहि.) के बारे में बताया गया है कि —
قَالَ اِنِّىْ عَبْدُ اللہِ۰ۣۭ اٰتٰىنِيَ الْكِتٰبَ وَجَعَلَنِيْ نَبِيًّا۳۰ۙ وَّجَعَلَنِيْ مُبٰرَكًا اَيْنَ مَا كُنْتُ۰۠ وَاَوْصٰىنِيْ بِالصَّلٰوۃِ وَالزَّكٰوۃِ مَا دُمْتُ حَيًّا۳۱۠ۖ وَّبَرًّۢا بِوَالِدَتِيْ۰ۡوَلَمْ يَجْعَلْنِيْ جَبَّارًا شَقِيًّا۳۲
“मैं अल्लाह का बन्दा हूँ। उसने मुझे किताब दी और मुझे नबी बनाया। और मुझे बरकतवाला किया जहाँ भी मैं रहूँ, और मुझे नमाज़ और ज़कात की ताकीद की, जब तक कि मैं जीवित रहूँ। और अपनी माँ का हक़ अदा करनेवाला बनाया। और उसने मुझे सरकश और बेनसीब नहीं बनाया।” (क़ुरआन, 19/30-32)
नज्जाशी ने जब ये आयतें सुनीं तो उसका दिल दहल गया। हालाँकि उस समय तक ईसाइयत बहुत हद तक बिगड़ चुकी थी। उसने ज़मीन से एक तिनका उठाया और कहा, “तुमने ईसा मसीह के बारे में जो कुछ कहा है, ख़ुदा की क़सम ईसा इस तिनके के बराबर भी उससे ज़्यादा कुछ नहीं थे।” इससे स्पष्ट होता है कि नज्जाशी इस सच्चाई को जानता और मानता था कि ईसाइयों की मान्यता के ख़िलाफ़, जो कहते हैं कि ईसा मसीह ख़ुदा के बेटे हैं, ईसा (अलैहि.) अल्लाह के बन्दे और उसके पैग़म्बर थे।
इस प्रकार मक्का के इस्लाम दुश्मनों का यह वार भी ख़ाली गया। नज्जाशी ने उन लोगों से कहा, “अगर तुम लोग एक पहाड़ के बराबर भी सोना दे दो, तब भी मैं इन लोगों को तुम्हारे हवाले नहीं कर सकता।”
और फिर मक्का के इस्लाम दुश्मनों को वापस लौटना पड़ा। इस प्रकार हब्शा में हिजरत करके सहाबा किराम (रज़ि.) के एक छोटे-से गिरोह को गिरफ़्तार करके लाने का उनका यह अभियान असफल हो गया।
सहाबा किराम (रज़ि.) आठ-दस वर्ष तक वहाँ पर रहे, उसके बाद जब इस्लाम मदीना में क़ायम हो गया तो वे मदीना चले गए। अल्लाह की रहमतें बरसें नबी (सल्ल.) पर और आपके उन जाँनिसार सहाबा (रज़ि.) पर जिन्होंने मुश्किल से मुश्किल हालात में भी सत्य बोला और कहीं समझौता नहीं किया।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।