नई दिल्ली: केरल हाईकोर्ट के जस्टिस मोहम्मद मुस्ताक और जस्टिस सीएस डायस की खंडपीठ ने कहा है कि विश्वासों और प्रथाओं से संबंधित मामलों में उलेमा की राय मायने रखती है. अदालतों को उनके विचारों का सम्मान करना चाहिए.
इसके साथ ही खंडपीठ ने कहा कि चूंकि वह कानून में प्रशिक्षित नहीं हैं, इसलिए कोर्ट कानूनी मामले का फैसला करते समय इस्लामिक विद्वानों की राय के आगे नहीं झुकेगी.
आवाज द वॉयस की खबर के अनुसार, जस्टिस मोहम्मद मुस्ताक और जस्टिस सीएस डायस की खंडपीठ ने कहा कि जब कानून की बात आती है, तो अदालतों को प्रशिक्षित कानूनी दिमागों द्वारा संचालित किया जाता है.
विश्वासों और प्रथाओं से संबंधित मामलों में ही उलेमा की राय पर विचार किया जाएगा. खंड पीठ ने कहा, अदालतों को प्रशिक्षित कानूनी दिमागों द्वारा संचालित किया जाता है.
अदालत इस्लामी उलेमा की राय के सामने आत्मसमर्पण नहीं करेगी. इनके पास कानून के मुद्दे पर कोई कानूनी प्रशिक्षण नहीं है. निसंदेह, विश्वासों और प्रथाओं से संबंधित मामलों में, उनकी राय मायने रखती है. अदालत को उनके विचारों का सम्मान करना चाहिए.
खंडपीठ ने कहा कि मुस्लिम समुदाय पर लागू होने वाले पर्सनल लॉ को तय करने के लिए न्यायालय द्वारा उलेमा पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. अदालत ने फ़िक़्ह और शरिया के बीच के अंतर पर भी जोर दिया.
अदालत अपने पिछले फैसले की समीक्षा की मांग करने वाली एक याचिका पर विचार कर रही थी. याचिका में कहा गया था कि मुस्लिम पत्नी के कहने पर शादी को समाप्त करने का पूर्ण अधिकार है. यह अधिकार पवित्र कुरान द्वारा प्रदान किया गया है.
सभी पक्षों को सुनने के बाद, अदालत ने अपने फैसले की समीक्षा करने का कोई कारण नहीं पाया और याचिका खारिज कर दी. अदालत ने बताया कि यह कोई नया मुद्दा नहीं है. कई वर्षों से चला आ रहा है, क्योंकि इस्लामी अध्ययन के विद्वान, जिनके पास कानूनी विज्ञान में कोई प्रशिक्षण नहीं है, इस्लाम में कानून के बिंदु पर विश्वास और अभ्यास के मिश्रण पर स्पष्ट करना शुरू कर दिया है.