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‘भाषा किसी धर्म की नहीं..’ साइनबोर्ड पर लिखी उर्दू के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा

कोर्ट ने उर्दू को "गंगा-जमुनी तहजीब" और "हिंदुस्तानी तहजीब" का बेहतरीन नमूना बताते हुए कहा कि यह उत्तरी और मध्य भारत की मिली-जुली सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है.

Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार, 14 अप्रैल को महाराष्ट्र के एक नगर परिषद के साइनबोर्ड पर उर्दू के इस्तेमाल को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया. कोर्ट ने स्पष्ट करते हुए कहा कि भाषा को धर्म से जोड़ना गलत है. कोर्ट ने ये भी साफ किया कि उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानना असलियत और विविधता में एकता से दूर जाने जैसा है. इस मामले की सुनवाई जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की बेंच कर रही थी.

बता दें कि अकोला जिले के पातुर की पूर्व पार्षद वर्षाताई संजय बागड़े ने पातुर नगर परिषद की नई इमारत के साइनबोर्ड पर उर्दू के इस्तेमाल को चुनौती दी थी. बागड़े इससे पहले बॉम्बे हाई कोर्ट भी पहुंचे थे.

‘भाषा कोई धर्म की नहीं होती’

कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि भाषा कोई धर्म की नहीं होती और न ही यह किसी धर्म का प्रतिनिधित्व करती है. भाषा एक समुदाय, क्षेत्र और लोगों की होती है, न कि किसी मजहब की. भाषा संस्कृति है और सभ्यता की प्रगति को मापने का पैमाना है. कोर्ट ने उर्दू को “गंगा-जमुनी तहजीब” और “हिंदुस्तानी तहजीब” का बेहतरीन नमूना बताते हुए कहा कि यह उत्तरी और मध्य भारत की मिली-जुली सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है.

कोर्ट ने आगे कहा…

कोर्ट ने आगे कहा कि हिंदी और उर्दू का मिश्रण तब रुक गया, जब दोनों पक्षों ने हिंदी को संस्कृतनिष्ठ और उर्दू को फारसी की ओर ले जाना शुरू किया. औपनिवेशिक ताकतों ने इसका फायदा उठाकर दोनों भाषाओं को धर्म के आधार पर बांट दिया, जिसके बाद हिंदी को हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों की भाषा समझा जाने लगा.

‘मराठी के साथ उर्दू के इस्तेमाल पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए’

कोर्ट ने कहा कि नगर परिषद ने नेमप्लेट या किसी साइनबोर्ड पर उर्दू का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि स्थानीय लोग इस भाषा को समझते हैं. इसका मकसद केवल लोगों को जानकारी देना था. कोर्ट ने कहा, “अगर नगर परिषद के क्षेत्र में रहने वाले लोग उर्दू से परिचित हैं, तो मराठी के साथ उर्दू के इस्तेमाल पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए.”

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