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Gujarat Riots reporting from ground, दोषियों की रिहाई पर अधिक आक्रोश क्यों नहीं दिख रहा?: बरखा दत्त

Gujarat Riots 2002: भारत की मशहूर पत्रकार बरखा दत्त लिखती हैं कि गुजरात में वर्ष 2002 में हुए दंगों के बाद मैं बिलक़ीस बानो से गोधरा के एक राहत शिविर में मिली, जहां पर घोर अंधेरे में एक गैस लैंप की छोटी सी झिलमिलाहट की रोशनी थी और घिसे-पिटे तिरपाल बिछे हुए थे. उसके टूटे हुए हाथ पर सफेद प्लास्टर, जिन लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया था, उन्होंने उसके हाथ तोड़ दिए थे, उस अंधेरी रात में झिलमिलाती रोशनी में उसके सफेद प्लास्टर चमक रहे थे. उसने बहुत धीरे-धीरे डर-डर कर और अविश्वास की भावना के साथ बताया कि उसके साथ क्या किया गया था. वह इन आदमियों को जानती थी, वे उसके पड़ोसी थे. वे उसके परिवार से दूध खरीदते थे.

गुजरात दंगा 2002

उस समय बिलक़ीस बानो 19 साल की थीं  और पांच महीने की गर्भवती थीं, जब इन पुरुषों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया था, फिर इन लोगों ने एक दूसरे की मौजूदगी में उसकी मां के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया. उसने मुझे बताया कि उसकी दो बहनों के साथ भी बलात्कार किया गया था. खौफ यहीं खत्म नहीं हुआ. जब वह असहाय, पस्त और फर्श पर खून से लथपथ पड़ी थी, तो उन्होंने एक पत्थर लिया और उसकी नवजात बेटी सालेहा का सिर फोड़ दिया. बिलक़ीस बानो ने उस दिन अपने परिवार के 14 सदस्यों को खो दिया था.

गुजरात दंगा 2002

बिलक़ीस और उसके पति याकूब रसूल को न्याय दिलाने में 17 साल से अधिक का समय लगा. इस दौरान उन्हें अपनी जान के डर से 20 बार घर बदलना पड़ा. यह 2019 तक नहीं था कि सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने परिवार को 1.50 लाख मुआवजे का आदेश दिया था, जैसा कि याकूब ने मुझे बताया, “हमने अभी-अभी फिर से जीना शुरू किया था.”

बिलक़ीस बानो अपने पति याकूब रसूल के साथ

गुजरात सरकार द्वारा रेमिशन पॉलिसी (माफी योजना) के तहत बलात्कारियों और बाल-हत्यारों को रिहा करने का निर्णय न्याय का अपमान करने जैसा है. इस गर्मी में, केंद्र ने सजायाफ्ता कैदियों की सजा को कम करने के लिए नए दिशानिर्देश जारी किए. लेकिन नियम स्पष्ट थे: बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों को इस योजना के दायरे से बाहर रखा गया था. तो, क्या गुजरात सरकार ने गृह मंत्रालय के नियमों का खंडन किया? ये कैसे हुआ? यह किसका निर्णय था?

वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर का तर्क है कि केंद्र के नए दिशानिर्देशों के बावजूद, जिस कानून के तहत गुजरात सरकार ने 11 दोषियों की रिहाई के लिए एक कार्यकारी आदेश जारी किया, जिनमें से सभी ने 14 साल जेल में बिताए, लेकिन उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी- “केंद्र सरकार के अनिवार्य परामर्श” के बिना नहीं किया जा सकता था. दूसरे शब्दों में कहें तो, केंद्र सरकार, आधिकारिक तौर पर रिहाई पर चुप है, लेकिन पूरी तरह से राज्य सरकार को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.

”बिलक़ीस खुद को अकेला महसूस करती है,” याकूब ने मुझसे कहा, “कभी हार न मानने की कसम खाई है. जब तक मैं जीवित रहूंगा, मैं बिलक़ीस के साथ खड़ा रहूंगा. उसका हमेशा साथ दूंगा. परिवार ने असाधारण धैर्य दिखाया है. याकूब की आवाज धीमी हो गई, ऐसा लगा जैसे उसके गले में कुछ फंस गया है. वह आगे कहता है कि “इन सभी वर्षों में हमने भारत की न्याय प्रणाली में अपना विश्वास रखा हुआ है, अब हम डरे हुए और निराश हैं.” लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों किया?

एक ऐसे देश में जहां सामूहिक बलात्कार को इतना जघन्य अपराध माना जाता है कि मृत्युदंड के प्रावधान के योग्य हो, क्या इन लोगों को जीवन भर जेल में रखना इतना मुश्किल था? और निर्भया हत्याकांड के दौरान हमने जिस आक्रोश को देखा था, जब एक 23 वर्षीय मेडिकल छात्रा के साथ चलती बस में सामूहिक बलात्कार किया गया था. कहां गए वह लोग? कहां गया वह जन आक्रोश?

बिलक़ीस बानो

अन्यथा, बहुत से भारतीय सोचते हैं कि मुठभेड़ों में बलात्कारियों को खत्म करना नैतिक रूप से उचित है- हम ड्राइंग रूम में बैठ कर बहसों और ट्विटर पर तर्कों में सार्वजनिक फांसी की बात करते हैं. आज, जब हम सब लोग देख रहे हैं कि किस तरह से दोषियों को रिहा किया जाता है तो हम अधिक क्रोधित क्यों नहीं हैं?

यह भारत की महिलाओं के साथ विश्वासघात है और हम सभी को इसे व्यक्तिगत रूप से लेना चाहिए.

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