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मेराज का सफ़र-1

मेराज का सफ़र-1

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)

प्रिय दर्शको,

आज आप ‘मेराज का सफ़र’ के विषय पर मेरी कुछ बातें सुनेंगे। अल्लाह तआला की यह रीति है कि वह अपने पैग़म्बरों की मदद करता है और उन्हें और अपने दूसरे नेक बन्दों को विभिन्न प्रकार की परीक्षाओं से गुज़ारता है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की पैग़म्बरी का दसवाँ साल था। आप (सल्ल.) की उम्र उस समय लगभग 50 वर्ष हो चुकी थी और हालात बहुत ही सख़्त हो गए थे। प्रकट में तो उम्मीद की कोई किरण दिखाई न देती थी। यह ऐसा चरण होता है जिसके बारे में अल्लाह तआला ने क़ुरआन में एक जगह कहा है—

“….कि नबी और ईमानवाले पुकार उठते हैं कि ऐ अल्लाह, तेरी मदद कब आएगी?”

और उसके जवाब में उनसे कहा जाता है कि अल्लाह की मदद क़रीब है और अल्लाह तो अपने नबी और उसके साथियों की मदद करता ही है। चुनाँचे एक रात नबी (सल्ल.) अपनी चचेरी बड़ी बहन उम्मे-हानी के यहाँ आराम कर रहे थे, जो अबू-तालिब की बेटी थीं, कि अचानक छत फटी और जिब्रील (अलैहि.) उसमें से प्रकट हुए। यह एक अजीब घटना थी, क्योंकि जिब्रील (अलैहि.) हमेशा सामने से आते थे और आप न से मुलाक़ात किया करते थे। आज कुछ असामान्य घटना घटनेवाली थी। जिब्रील (अलैहि.) अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को हरम शरीफ़ ले गए। काबा से संलंग्न हतीम के क्षेत्र में आप (सल्ल.) को लिटाया, आपका सीना चीर दिया। यह निश्चय ही एक अद्भुत घटना थी, भौतिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी, मगर अल्लाह के भेद अल्लाह ही जाने।

उसके बाद जिब्रील (अलैहि.) एक परात लेकर आए थे, जिसमें रखकर आप (सल्ल.) के दिल को पवित्र पानी से धोया गया। फिर उसमें ज्ञान, तत्त्वदर्शिता, सूझबूझ, धैर्य जैसे गुणों को डाला गया। और इसके अलावा जिब्रील (अलैहि.) एक जानवर भी लाए थे, जो गधे से कुछ बड़ा और ख़च्चर (टट्टू) से कुछ छोटा था, उसका नाम ‘बुराक़’ था। बुराक़ ‘बर्क़’ शब्द से बना है और ‘बर्क़’ बिजली को कहते हैं। इस दृष्टि से ‘बुराक़’ का अर्थ हुआ ‘बिजली की गति से चलनेवाला’।

हज़रत जिब्रील (अलैहि.) ने आप (सल्ल.) को उस जानवर पर सवार किया, और उसका अगला ही क़दम बैतुल-मक़दिस था जो मक्का से 1000-1200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। वहाँ सभी पैग़म्बरों की रूहें इकट्ठा थीं, जिनमें आदम (अलैहि.) से लेकर ईसा (अलैहि.) तक शामिल थे। सभी पैग़म्बरों ने नबी (सल्ल.) का स्वागत किया और फिर आप उन सबने आपकी इमामत में नमाज़ अदा की। फिर उसके बाद आप (सल्ल.) का आसमानों का सफ़र शुरू हुआ।

दरअस्ल अल्लाह तआला अपने जिन बन्दों को पैग़म्बरी की महान और भारी ज़िम्मेदारी देता है, उनको इस सृष्टि के उन बहुत से भेदों से अवगत कराता है, जिनसे आम इंसान अनभिज्ञ रहते हैं। इसका कारण उनके ईमान को मज़बूत करना होता है, ताकि वे केवल आस्था के रूप में ही नहीं, बल्कि सचमुच अपन आँखों से उन सच्चाइयों को देख लें, जिनकी ओर उन्हें आम इंसानों को बुलाना है।

फिर कुछ ही पलों में आप (सल्ल.) आसमान पर पहुँच गए। एक के बाद एक, सातों आसमानों के दरवाज़े खुलते चले गए। वहाँ एक-एक आसमान पर आदम (अलैहि.) से मुलाक़ात हुई। फिर उसके बाद हज़रत यहया (अलैहि.) से, हज़रत ईसा (अलैहि.) से, हज़रत यूसुफ़ (अलैहि.) से, हज़रत इदरीस (अलैहि.) से, हज़रत हारून (अलैहि.) से, हज़रत मूसा (अलैहि.) से और आख़िर में हज़रत इबराहीम (अलैहि.) से। हर पैग़म्बर ने आप (सल्ल.) का स्वागत किया।

इसके बाद आप (सल्ल.) ‘सिदरतुल-मुंतहा’ तक पहुँचे। इसके बाद जिब्रील अमीन ने कहा, “मैं इससे आगे नहीं जा सकता।” और आप (सल्ल.) अकेले ही आगे बढ़ गए।

फिर उसके बाद एक परदे की ओट से अल्लाह तआला से वार्ता हुई। अल्लाह ने वह्य के द्वारा बहुत सारी बातें नबी (सल्ल.) तक पहुँचाईं ।

पहली बात यह कि नबी (सल्ल.) को इस बात की शुभ-सूचना दी गई कि अब आपकी और आपकी उम्मत (अनुयायी समाज) की दयनीयता के दिन समाप्त होनेवाले हैं और अब आपकी सफलता का दौर शुरू होगा। यह इशारा था मदीना की ओर हिजरत करने का। फिर आपको एक दुआ सिखाई गई —

رَّبِّ أَدْخِلْنِى مُدْخَلَ صِدْقٍۢ وَأَخْرِجْنِى مُخْرَجَ صِدْقٍۢ وَٱجْعَل لِّى مِن لَّدُنكَ سُلْطٰنًا نَّصِيرًا
“ऐ मेरे रब, मुझे जहाँ भी दाख़िल कर, सच्चाई के साथ दाख़िल कर, और जहाँ से निकल, सच्चाई के साथ निकाल। और एक सत्ता को मेरा सहायक बना दे।”

फिर उसके बाद यह बात भी स्पष्ट कर दी गई कि यहूदियों को—जिन्हें इस दुनिया का नेतृत्व करने और लोगों का मार्गदर्शन करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी, मगर उन्होंने उस ज़िम्मेदारी को पूरा न किया और अल्लाह की खुली नाफ़रमानी की—उस पद से हटा दिया गया। इसके बाद यह सम्मानित और महान ज़िम्मेदारी उन लोगों को दी गई जिन्होंने ईमान लाने के बाद सच्चे दिल से आप (सल्ल.) के अनुपालन का मार्ग अपना लिया है। क़ुरआन की यह आयत भी मुसलमानों को मिली इस ज़िम्मेदारी की पुष्टि करती है—

كُنتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَأْمُرُونَ بِٱلْمَعْرُوفِ وَتَنْهَوْنَ عَنِ ٱلْمُنكَرِ وَتُؤْمِنُونَ بِٱللَّهِ ۗ
“तुम एक उत्तम समुदाय हो, जो लोगों के समक्ष लाया गया है। तुम नेकी का हुक्म देते हो और बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो।” (क़ुरआन, 3/110)
या फिर—

وَكَذَٰلِكَ جَعَلْنٰكُمْ أُمَّةً وَسَطًا لِّتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِ وَيَكُونَ ٱلرَّسُولُ عَلَيْكُمْ شَهِيدًا
“और इस प्रकार हमने तुम्हें बीच का एक उत्तम समुदाय बनाया है, ताकि तुम सारे मनुष्यों पर गवाह हो और रसूल तुमपर गवाह हो।” (क़ुरआन, 2/143)

यह महान ज़िम्मेदारी मुस्लिम समुदाय को उसी ज़माने में प्रदान कर दी गई कि अब क़ियामत तक तुम ही आख़िरी उम्मत हो और तुमपर यह ज़िम्मेदारी डाली जाती है कि तुम दुनिया की तमाम आनेवाली क़ौमों के सामने अपनी ज़बान से भी और अपने कर्मों से भी अल्लाह के दीन की गवाही पेश करो।

इसके साथ-साथ मक्का के इस्लाम-दुश्मनों को भी चेतावनी दी गई कि अब तुम्हें आख़िरत में सफलता केवल इसी प्रकार मिल सकती है कि तुम मुहम्मद पर ईमान लाओ। अगर तुमने उन्हें अभ भी अल्लाह का रसूल स्वीकार नहीं किया, और इसी तरह विरोध करते रहे तो तुम्हारा विनाश निश्चित है।

इस मौक़े पर अल्लाह ने जो बड़े-बड़े आदेश दिए, उसको सूरा-17 बनी-इसराईल में हम देख सकते हैं। उसमें जो कुछ बताया गया, वह निम्नलिखित है—

1. अल्लाह की तौहीद (एकमात्र उपास्य होने) पर पूरा ईमान रखो और शिर्क (बहुदेववाद) का लेशमात्र भी तुम्हारे अन्दर नहीं होना चाहिए।
2. माँ-बाप का आदर करो और उनकी आज्ञा का पालन करो।
3. रिश्तेदारों, ग़रीबों, और मुसाफ़िरों को उनका हक़ दो और नाजायज़ ढंग से अपना माल ख़र्च न करो।
4. अगर हक़दारों की सेवा का सिलसिला किसी मजबूरी के कारण रुक जाए तो अच्छे ढंग से उनसे खेद प्रकट कर दो।
5. माल के ख़ुद पर ख़र्च करने और अल्लाह की राह में ख़र्च करने, दोनों स्थितियों में सन्तुलन की नीति अपनाओ।
6. निर्धनता के डर से अपनी संतान की हत्या न करो।
7. व्यभिचार से पूरी तरह बचो और किसी गन्दे काम के निकट फटको भी नहीं।
8. नाहक़ या बिना किसी उचित कारण के किसी की जान न लो। जान अल्लाह का दिया हुआ वरदान है और इसकी रक्षा करना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है।
9. अगर तुम्हारे संरक्षण में कुछ यतीम (अनाथ) हैं, तो उनके माल की रक्षा करो, और अगर उसमें से ख़र्च करो तो जायज़ ढंग से ख़र्च करो।
10. अपने वचनों और प्रतिज्ञाओं को निभाओ।
11. लेन-देन में नाप-तौल के पैमाने और तराज़ू ठीक रखो।
12. जो बात तुम्हारे ज्ञान की परिधि से बाहर हो, उसके पीछे न लगो, क्योंकि इंसान को अपनी श्रवण शक्ति, देखने की शक्ति और दिल का हिसाब अल्लाह को देना पड़ेगा।
13. धरती पर घमंड की चाल न चलो, बल्कि विनम्रता की नीति को अपनाओ।

ये नियम एवं सिद्धांत थे जो मेराज की रात अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल.) को प्रदान किए, और जिनके आधार पर मदीना के पहले इस्लामी राज्य की स्थापना की गई।

अल्लाह तआला हमको भी इन सिद्धांतो को समझने और इनको व्यवहार में लानेवाला बनाए।

व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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