मदीना में सख़्त मुश्किलों का सामना
प्रिय दर्शको, आप सबको मेरा प्यार भरा सलाम।
नबी (सल्ल.) ने मदीना मुनव्वरा में दस साल गुज़ारे। शुरू के दिन बहुत ही तकलीफ़ और मुसीबत में गुज़रे। वहाँ पर संसाधन नहीं थे। वहाँ जो लोग आए थे, वे सब कुछ छोड़कर और लुट-पिटकर आए थे। कुछ लोग जो अविवाहित और अकेले थे, और मक्का आ गए थे, उन्हें मस्जिदे-नबी में एक चबूतरे पर जगह दी गई। चबूतरे को अरबी भाषा में ‘सुफ़्फ़ा’ कहते हैं। बाद में ये लोग ‘असहाबे-सुफ़्फ़ा’ (चबूतरे वाले) के नाम से प्रसिद्ध हुए।
उन दिनों मदीना में एक महामारी फैल गई, इसका कारण मौसम और हवा-पानी का बदलना भी था। चुनाँचे नबी (सल्ल.) ने गिड़गिड़ाकर अल्लाह तआला से कई बार दुआ माँगी, “ऐ अल्लाह, हमारे लिए मदीना को वैसा ही आकर्षक बना दे जैसा कि मक्का को बनाया था, या उससे भी ज़्यादा, और हमारे लिए इसके पैमानों (अनाज और पैदावार) में बरकत दे, और इसपर आई हुई महामारी को दूर कर दे।”
इस जगह हमें यह बात याद रखनी चाहिए जो अल्लाह तआला कहता है—
وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَالْجُوْعِ وَنَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَالْاَنْفُسِ وَالثَّمَرٰتِ۰ۭ وَبَشِّرِ الصّٰبِرِيْنَ۱۵۵ۙ الَّذِيْنَ اِذَآ اَصَابَتْہُمْ مُّصِيْبَۃٌ۰ۙ قَالُوْٓا اِنَّا لِلہِ وَاِنَّآ اِلَيْہِ رٰجِعُوْنَ۱۵۶ۭ اُولٰۗىِٕكَ عَلَيْہِمْ صَلَوٰتٌ مِّنْ رَّبِّہِمْ وَرَحْمَۃٌ۰ۣ وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُہْتَدُوْنَ۱۵۷
“और हम अवश्य ही कुछ भय से, और कुछ भूख से, और कुछ जान-माल और पैदावार की कमी से तुम्हारी परीक्षा लेंगे। और धैर्य से काम लेनेवालों को शुभ-सूचना दे दो। जो लोग उस समय, जबकि उनपर कोई मुसीबत आती है, कहते हैं कि ‘निस्संदेह हम अल्लाह ही के हैं और हम उसी की ओर लौटनेवाले हैं।’ यही लोग हैं जिनपर उनके रब की विशेष कृपाएँ हैं, और यही लोग हैं जो सीधे मार्ग पर हैं।” (क़ुरआन, 2/155-157)
चुनाँचे इस तरह की बड़ी मुसीबतें आईं । अबू-तलहा (रज़ि.) उस दौर का हाल बयान करते हैं। वह कहते हैं कि “हम लोग भूख की मुसीबत में घुल-घुलकर जब तंग आ गए, तो सहारा लेने के लिए एक बार नबी (सल्ल.) के पास पहुँचे।” वे लोग कई दिन से भूखे थे। वहाँ गर्मी भी बहुत तेज़ पड़ती थी। भूख से पेट में एक तरह की जलन होती थी, तो कुछ लोग कपड़ा रखकर पेट पर पत्थर बाँध लेते थे, ताकि उससे कुछ सुकून मिले। जब अबू-तलहा (रज़ि.) ने अपना कपड़ा उठाकर पेट पर बंधा पत्थर नबी (सल्ल.) को दिखाया तो नबी (सल्ल.) ने उन्हें दिखाया कि उनके पेट पर तो दो पत्थर बंधे हुए हैं।
इसी तरह एक बार हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक (रज़ि.) ने चाहा कि अपनी परेशानियों का ज़िक्र अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की सेवा में जाकर करें, लेकिन फिर यह सोचकर चुप रह गए कि इससे नबी (सल्ल.) को कष्ट पहुँचेगा जो ख़ुद भी परेशानियाँ झेल रहे थे।
नबी (सल्ल.) ने पूछा, “अबू-बक्र, किसलिए आए हो?”
अबू-बक्र (रज़ि.) ने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल, मेरा इस समय बुरा हाल है, भूख से मेरे होश ठिकाने नहीं हैं।” तो नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया, “चलो, अबुल-हैसम के यहाँ चलें।”
अबुल-हैसम मदीना के पास कई बाग़ों के मालिक थे और आर्थिक रूप से काफ़ी मज़बूत थे। अतः जब नबी (सल्ल.) और अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) वहाँ पर पहुँचे तो वह ख़ुशी के मारे अल्लाह के रसूल से लिपट गए, और चूँकि उस समय नौकर भी नहीं था, इसलिए ख़ुद दौड़े-दौड़े गए और पानी लाए और उन दोनों को बिठाया, उनका आदर-सत्कार किया, उनकी सेवा में खजूरें पेश कीं। फिर नबी (सल्ल.) ने अल्लाह का शुक्र अदा किया साथ ही अबुल-हैसम का भी शुक्र अदा किया और फिर वहाँ से लौटे।
अबू-हुरैरा (रज़ि.) जिन्होंने बहुत बाद के दिनों में इस्लाम स्वीकार किया था, वह फ़रमाते हैं, “कभी-कभी मैं मस्जिदे-नबवी में बेहोश हो जाता और लोग समझते कि मुझपर शायद पागलपन का दौरा पड़ गया है और वे अपने तौर पर इलाज करने की कोशिश करते।”
इस तरह की बहुत कठिन परिस्थितियाँ थीं जिनमें नबीं (सल्ल.) को काम करना था। लेकिन एक बड़ा काम करना था आप (सल्ल.) को। अल्लाह तआला कहता है—
وَالَّذِيْنَ جَاہَدُوْا فِيْنَا لَـنَہْدِيَنَّہُمْ سُـبُلَنَا۰ۭ وَاِنَّ اللہَ لَمَعَ الْمُحْسِـنِيْنَ۶۹ۧ
“रहे वे लोग जिन्होंने हमारे मार्ग में मिलकर प्रयास किया, हम उन्हें अवश्य अपने मार्ग दिखाएँगे। निस्संदेह अल्लाह सुकर्मियों के साथ है।” (क़ुरआन, 29/69)
आज इंसान को कितनी सुविधाएँ प्राप्त हैं। आज कोई भूखा मरता नहीं है। हाँ, कुछ मुसीबतें आती हैं, कुछ सरकारों के विरोध और उनकी ओर से गिरफ़्तारियाँ आदि। फिर भी लोकतंत्र का प्रचलन है, मानवाधिकारों की बात की जाती है, उसका समर्थन किया जाता है, न्याय व्यवस्था है। इस तरह दुनिया पहले की तुलना में बहुत बड़ी हो गई है। अगरचे समस्याएँ अब भी हैं और रहेंगी, क्योंकि —
मुसीबत में बशर के जौहरे-मर्दाना खुलते हैं
मुबारक बुज़दिलों को गर्दिशे-क़िस्मत से डर जाना
दिल में हौसले के साथ और अल्लाह तआला की मदद पर भरोसा करते हुए हमें इस मक़सद के लिए अल्लाह के दीन (इस्लाम) को फैलाने के लिए और अल्लाह के प्रकाश और अल्लाह के सन्देश को आम करने के लिए लगातार संघर्ष करना है। अल्लाह तआला हमें और आपको सबके दिल में इसका जज़्बा दे और लोगों के दिलों के दरवाज़ो को अल्लाह की बन्दगी और मानव-सम्मान के सन्देश को स्वीकार करनेवाला बनाए।
आमीन या रब्बल-आलमीन।