अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का सौदेबाज़ी से इनकार
प्रिय दर्शको,
आज उत्बा-बिन-रबीआ, जो कि मक्का का एक बड़ा सरदार था, उससे जुड़ी कुछ बातें आपके सामने पेश की जाएँगी।
इस्लाम का सन्देश धीरे-धीरे फैलता जा रहा था। मक्का के बड़े-बड़े सरदार और धनवान लोग इस्लाम के इस प्रसार से परेशान थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे इसे कैसे रोकें। एक दिन उत्बा-बिन-रबीआ (उसकी कुन्यत अबुल-वलीद थी) ने अपने साथियों से कहा, “देखो, पानी सिर से ऊँचा जा रहा है। तुम अगर कहो तो मैं जाऊँ और मुहम्मद से बात करूँ?” उन लोगों ने उसे इसकी अनुमति दे दी।
इसके बाद उत्बा-बिन-रबीआ अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के पास गया और बोला, “तुम एक शरीफ़ ख़ानदान के सुपुत्र हो, यह क्या हो रहा है? तुम्हारे सन्देश के कारण लोगों में मतभेद पैदा हो गया है। क़ौम तितर-बितर हो गई है, सारी व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती जा रही है।” फिर उसने नबी (सल्ल.) से कहा, “सुनो! मैं कुछ बातें तुम्हारे सामने रखता हूँ।”
आप (सल्ल.) ने कहा, “जी अबुल-वलीद, बोलिए, क्या कहना चाहते हैं आप?”
वह बोला, “क़ौम में फूट डालने से क्या फ़ायदा? अगर तुम दौलत चाहते हो तो धन-दौलत के ढेर हम तुम्हारे सामने लगा देंगे, सरदारी का शौक़ हो तो हम तुम्हें अपना सरदार बना लेंगे, बादशाहत की तमन्ना है तो हम तुम्हारे लिए ताज तैयार करके तुमको अपना बादशाह स्वीकार करने के लिए भी तैयार हैं? और अगर तुमपर किसी जिन्न आदि का साया है तो हम तुम्हारा इलाज भी करा सकते हैं…..।”
नबी (सल्ल.) चुपचाप उत्बा की ये सारी बातें सुनते रहे। फिर आप (सल्ल.) ने उससे कहा, “अबुल-वलीद, आपकी इस पेशकश के जवाब में कुछ बातें कहने जा रहा हूँ, ग़ौर से सुनिएगा।”
उत्बा ने कहा, “बोलो बेटे।”
इसके बाद आप (सल्ल.) ने क़ुरआन की सूरा-41 हा-मीम-सजदा की तिलावत (पाठ) शुरू कर दी।
सुनकर उत्बा-बिन-रबीआ का दिल दहल गया और जब वह क़ुरैश के धनाढ्य लोगों की सभा में गया तो वे बोल उठे, “ख़ुदा की क़सम, अबुल-वलीद! यह वह चेहरा नहीं है जो तुम लेकर गए थे। लगता है कि बदल गए हो। क्या कोई अच्छी ख़बर लाए हो?”
“ख़ुदा की क़सम,” उसने कहा, “मैंने बहुत से शायरों के शेअर सुने हैं, काहिनों की बातें सुनी हैं, लेकिन यह तो कुछ और ही चीज़ है। देखो, मेरी सोची-समझी राय यह है कि इस व्यक्ति को अपने हाल पर छोड़ दो। जो कुछ करता है, करने दो। अगर वह सफल हो गया तो यह हमारी भी सफलता होगी, और अगर वह नाकाम रहा और लोगों ने उसका काम तमाम कर दिया तो उसके ख़ून का भार हमपर न आएगा।”
क़ुरैश के सरदारों ने कहा, “अबुल-वलीद, तुमपर भी मुहम्मद का जादू चल गया।”
इस प्रकार अबुल-वलीद की तरफ़ से यह जो प्रस्ताव रखा गया था, वह व्यर्थ हो गया। क़ुरैश के सरदार किसी नए सन्देश को गंभीरतापूर्वक सुनने की क्षमता न रखते थे, बस अपनी बड़ाई के मद में चूर थे, उन्हें अपनी दौलत का ग़ुरूर था और सत्य की पुकार को सुनी-अनसुनी कर देते थे।
नबी (सल्ल.) ने सूरा हा-मीम-सजदा की कुछ आयतों के द्वारा उसे प्रभावित कर दिया। ऐसे में उसे यह लगने लगा कि इन्हें इनके हाल पर छोड़ देने में ही भलाई है, क्योंकि वह आपके सन्देश को, उसकी गहराई को, उसकी हक़ीक़त को समझ चुका था, बुद्धिमान आदमी था। वह समझ गया था कि इस सन्देश के पीछे धन-दौलत या सत्ता का मोह नहीं है।
इस प्रकार क़ुरैश के लोगों का यह वार ख़ाली गया और नबी (सल्ल.) ने साबित कर दिया कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ, दौलत हासिल करने के लिए, या सत्ता प्राप्त करने के लिए या अपनी बड़ाई के लिए नहीं कर रहा हूँ। यह तो अल्लाह का सन्देश है और मैं अल्लाह की तरफ़ लोगों को बुला रहा हूँ। मुहम्मद (सल्ल.) की इस बात की पुष्टि ख़ुद अल्लाह ने इस प्रकर की है।
وَمَا يَنْطِقُ عَنِ الْہَوٰى۳ۭ اِنْ ہُوَاِلَّا وَحْيٌ يُّوْحٰى۴ۙ
“और न वह अपन इच्छा से बोलता है, वह तो बस एक प्रकाशना है, जो उसपर की जाती है।” (क़ुरआन, 53/3-4)
मुहम्मद (सल्ल.) जो बात पेश कर रहे हैं, यह वह अपनी इच्छा से नहीं बोल रहे हैं, जो कुछ वह्य (प्रकाशना) अल्लाह की ओर से अवतरित की जाती है, उसी को लोगों के सामने पेश कर रहे है।
अल्लाह की रहमतें हों नबी करीम (सल्ल.) पर, और अल्लाह तआला हमें उनके पदचह्नों पर चलते हुए सत्य धर्म को अपनाने, उसे व्यवहार में लाने तथा दूसरों तक पहुँचाने का सौभाग्य प्रदान करे।
سُبْحَانَ رَبِّكَ رَبِّ الْعِزَّةِ عَمَّا يَصِفُونَ وَسَلَامٌ عَلَى الْمُرْسَلِينَ وَالْحَمْدُ لِلہِ رَبِّ الْعَالَمِينَ
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।