प्रिय दर्शको! आज के इस एपिसोड में आपके सामने ताइफ़ के हालात की पृष्ठभूमि में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की दुआ पेश की जाएगी। इस दुआ को ‘दुआए-मुज़्तज़अफ़ीन’ यानी कमज़ोरों की दुआ भी कहा जाता है और दुआए-ताइफ़ भी।
जब अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के साथ अत्यंत अपमानजनक व्यवहार किया गया, और आपको ताइफ़ की बस्ती से निकलने के लिए मजबूर कर दिया गया, और आपको लहू-लुहान कर दिया गया, और एक बाग़ की दीवार का सहारा लेकर अंगूर की एक बेल की छाया में आप बैठे। उस समय आप अपने रब की ओर उन्मुख हुए, उस समय आपने दुआ की। देखिए क्या प्यारे शब्द हैं, क्या अल्लाह तआला पर अपने अटूट विश्वास को व्यक्त किया जा रहा है, कैसे उससे सहायता माँगी जा रही है। दुआ के शब्द हैं—
“ऐ अल्लाह, तेरे ही सामने अपनी बेबसी और बेचारगी और लोगों की निगाह में अपनी बेक़द्री की शिकायत करता हूँ। ऐ सबसे बढ़कर रहम करनेवाले, तू सारे ही कमज़ोरों का रब है और मेरा रब भी तू ही है। मुझे तू किसके हवाले कर रहा है? क्या किसी पराए के हवाले जो मुझसे रुखाई के साथ पेश आए? या किसी दुश्मन के हवाले जो मुझपर क़ाबू पा ले? अगर तू मुझसे नाराज़ नहीं है, तो मुझे किसी मुसीबत की परवाह नहीं, मगर तेरी ओर से मुझे कुशलता मिल जाए तो उसमें मेरे लिए ज़्यादा कुशादगी है। मैं पनाह माँगता हूँ तेरी सत्ता के उस नूर (प्रकाश) की जो अंधेरे में उजाला और लोक-परलोक के मामलों को ठीक करता है। मुझे इससे बचा ले कि तेरा क्रोध मुझपर टूट पड़े। या मैं तेरे प्रकोप का भागी हो जाऊँ। तेरी मर्ज़ी पर राज़ी हूँ यहाँ तक कि तू मुझसे राज़ी हो जाए। कोई ज़ोर और शक्ति तेरे बिना नहीं है।”
क्या करुण-क्रन्दन है, क्या विनम्रता है, किस तरीक़े से तड़पकर, गिड़गिड़ाकर नबी (सल्ल.) अल्लाह से सहायता माँग रहे हैं। हमारा भी रवैया यही होना चाहिए। बार-बार हमें अपने रब की ओर उन्मुख होना चाहिए। हममें से अधिकतर लोग दावत का काम करते ही नहीं। दावत पेश कीजिए, और अपने आपको चरित्र एवं आचरण की दृष्टि से दावत पेश करने के योग्य बनाइए और अगर इस मार्ग में कुछ कठिनाइयाँ आएँ, कुछ बुरा-भला कहा जाए तो उसको सहन कीजिए।
अब देखिए एक और पहलू अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के व्यक्तित्व का। जब आप वहाँ से बाहर निकले और एक स्थान पर आए, तो आपने देखा कि कुछ बादल जैसे हैं। आपने नज़र उठाकर देखा, जिब्रील अमीन थे वहाँ पर। जिब्रील अमीन ने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! आपपर सलामती हो। आपने अपनी क़ौम के सामने जो दावत पेश की थी, उन्होंने क्या जवाब दिया, अल्लाह तआला को सब कुछ मालूम है। अल्लाह तआला ने आपकी दुआ सुनी और यह पहाड़ों का प्रबंधक फ़रिश्ता आपकी सेवा में हाज़िर है।”
पहाड़ों का प्रबंधक फ़रिश्ता आगे बढ़ता है और कहता है कि “ऐ अल्लाह के रसूल, अगर आप मुझे आदेश दें जिन दो पहाड़ियों के बीच यह ताइफ़ की बस्ती है, उन पहाड़ों को भी इस तरीक़े से मिला दूँ कि सब-के-सब कुचलकर ख़त्म हो जाएँ?”
अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने फ़रमाया, “नहीं, नहीं..नहीं। मैं यह नहीं चाहता। मुझे अल्लाह से इस बात कि उम्मीद है कि आज अगर ये लोग मेरे दीन को, मेरी दावत को रद्द करते हैं तो अल्लाह तआला इनकी नस्ल में से ऐसे लोगों को उठाएगा कि वे लोग इस दीन (धर्म) को स्वीकार करेंगे, इसकी सत्यता को स्वीकार करेंगे। और दुनिया ने देखा कि सक़ीफ़ का क़बीला जो ताइफ़ और उसके आस-पास के क्षेत्रों में बसा हुआ था, बाद में वह इस्लाम की शक्ति को सुदृढ़ करने का एक माध्यम बना।”
उसी मौक़े पर एक बात यह हुई कि नख़ला नामक एक स्थान है, वहाँ पर आप ठहरे हुए थे। रात के शान्तिपूर्ण क्षणों में, सन्नाटे में बहुत मधुर आवाज़ में आप क़िरअत (क़ुरआन पाठ) कर रहे थे कि जिन्नों के एक गिरोह का वहाँ से गुज़र हुआ। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को यह बात पता नहीं चली, बाद में अल्लाह तआला ने सूरा-46 अहक़ाफ़ में इसका उल्लेख किया और आपको सूचित किया कि जब जिन्नों का एक गिरोह वहाँ पर आया, उन्होंने इस कलाम (वाणी) को सुना तो उनको इस बात का एहसास हुआ कि हमें तौहीद (एकेश्वरवाद) को अपनाना चाहिए। अतः जिन्नों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और उन्होंने कहा कि हम अपनी क़ौम के पास जाएँगे और अपनी क़ौम (अन्य जिन्नात) को हम बताएँगे कि सही तरीक़ा क्या है। यह तो एक लम्बे समय के बाद एकेश्वरवाद की दावत उभरी है। तो इस तरीक़े से यह भी आप (सल्ल.) के लिए बहुत अधिक सन्तोषजनक साबित हुआ। हमें भी अल्लाह के नबी की सच्ची पैरवी करते हुए हर वक़्त हमारा मक़सद यही होना चाहिए। एक शायर ने कहा है —
न ग़रज़ किसी से न वासिता हमें काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरे फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
अल्लाह की तरफ़ बुलाना है, युक्तिपूर्ण ढंग से, प्रेम के साथ, सज्जनता के साथ, और जो मुश्किलें इस राह में आएँ, उनको सहन करना है।
अल्लाह तआला हमें ऐसा करने का सौभाग्य प्रदान करे, आमीन।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।