मुहम्मद (सल्ल.) की ख़दीजा (रज़ि.) के साथ शादी
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)
प्रिय दर्शको,
बीस-बाईस वर्ष के हो जाने तक आप (सल्ल.) कई व्यापारिक यात्राएँ कर चुके थे। कारोबार का आप (सल्ल.) को अनुभव हो गया था। उन्हीं दिनों मक्का में एक महिला थीं जिनका नाम ख़दीजा था। वे अत्यंत सभ्य एवं शिष्ट महिला थीं। उनके दो पति मर चुके थे और वे संभवतः मक्का की सबसे बड़ी महिला व्यापारी थीं। वे दूसरों को अपना पैसा और व्यापारिक सामान देतीं और उनके द्वारा व्यापार करतीं और उन्हें इस व्यापार में लाभ-हानि के आधार पर साझेदार बनातीं। उनको पता चला कि मक्का में मुहम्मद नामक एक नौजवान है (मुहम्मद सल्ल. उस समय तक नबी नहीं बने थे, इसलिए अगर मैं केवल मुहम्मद कहूँ तो आप बुरा न मानें) जो बहुत शरीफ़ और ईमानदार है, अगर आप उसको अपने व्यापार में साझी बना लें तो बहुत लाभ होगा। अतः उन्होंने मुहम्मद को बुलाया। उन्हें देखकर उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुईं और कहा कि “मैं दूसरों को लाभ में जितना हिस्सा देती हूँ उसकी तुलना में मैं आपको दोगुना दूँगी।” और उन्होंने अपने ग़ुलाम (दास) ‘मैसरा’ को उनके साथ कर दिया। मैसरा भी आप (सल्ल.) के चरित्र एवं आचरण से बहुत अधिक प्रभावित हुआ और आप सीरिया के सफ़र पर गए और अच्छा व्यापार किया। चूँकि आपका लेन-देन बहुत साफ़ था, इसलिए लाभ भी अच्छा हुआ और फिर आप (सल्ल.) वापस आ गए। हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) ने अपने वादे के अनुसार हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को दोगुना लाभ प्रदान किया। और मैसरा का यह हाल था कि वह आप (सल्ल.) के चरित्र एवं आचरण से प्रभावित होकर सारे सफ़र में आपका बहुत आदर-सम्मान करता था, मानो वह हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) का नहीं, बल्कि हज़रत मुहम्मद का ग़ुलाम हो गया था।
इस प्रकार की कुछ व्यापारिक यात्राओं के बाद हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) के मन में ख़याल आया कि ये (मुहम्मद) तो केवल मेरे एक एजेंट के तौर पर काम कर रहे हैं। क्यों न मैं इनसे निकाह कर लूँ। उन्होंने इस संबंध में अपने बड़ों से चर्चा की। उनकी एक साथी थीं, जिनका नाम ‘नफ़ीसा’ था। हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) ने उनसे भी इस विषय में चर्चा की। उन्होंने कहा, “यह तो बहुत अच्छी बात होगी।” और फिर हज़रत ख़दीजा ने अपने बुज़र्गों से मशवरा करके स्वयं हज़रत मुहम्मद के पास निकाह का पैग़ाम भेजा। स्पष्ट रहे कि हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) की आयु उस समय चालीस वर्ष थी और मुहम्मद (सल्ल.) पच्चीस वर्ष के थे।
आप (सल्ल.) ने अपने चचा अबू तालिब और दूसरे लोगों से मशवरा किया। उन लोगों ने भी हज़रत ख़दीजा के पक्ष में राय दी। उन्होंने कहा कि “उनके दो पतियों का देहांत हो चुका है। उन दो पतियों से उनके तीन बच्चे भी हैं।” इस तरह बात आगे बढ़ी। हज़रत अबू तालिब, जो आप (सल्ल.) के चचा ही नहीं, संरक्षक भी थे, उनके साथ लोग हज़रत ख़दीजा के घर गए और इस प्रकार हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) से आप (सल्ल.) का निकाह हो गया। उम्र के अन्तर के बावजूद यह रिश्ता बहुत सफल रिश्ता साबित हुआ।
नबी (सल्ल.) को जितने बच्चे भी अल्लाह तआला ने दिए, वे सब हज़रत ख़दीजा से ही दिए। तैय्यब, ताहिर और क़ासिम ये तीन बेटे हुए और चार बेटियाँ हज़रत ज़ैनब (रज़ि.), हज़रत उम्मे-कुलसूम (रज़ि.), हज़रत रुक़ैया (रज़ि.) और हज़रत फ़ातिमा (रज़ि.)।
हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) से शादी के समय आप (सल्ल.) की आयु 25 वर्ष थी और पन्द्रह वर्ष तक आपका दाम्पत्य जीवन सुखद रूप से चलता रहा। साथ ही व्यापार भी करते रहे। इस प्रकार आप (सल्ल.) को दुनिया का अधिक से अधिक अनुभव होने लगा।
इंशाअल्लाह अगले एपिसोड में हम आपके सामने हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) की महानता के बारे में कुछ बताएँगे।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।