अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की मदीना को हिजरत

अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की मदीना को हिजरत

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)

प्रिय दर्शको,

आज आपके सामने हिजरते-मदीना की घटना प्रस्तुत की जाएगी। मक्का वालों ने इस्लाम के लिए अपने दरवाज़े बन्द कर दिए थे। मक्का के बड़े-बड़े सरदारों और क़ुरैश के बड़े-बड़े धनाढ्य लोगों ने यह फ़ैसला कर लिया था कि वे इस्लाम को मक्का की धरती पर पनपने नहीं देंगे। दूसरी ओर मदीना के लोग मक्का के उन लोगों का, जो इस्लाम स्वीकार कर चुके थे, मदीना में स्वागत करने को तैयार थे। अक़बा की पहली और दूसरी बैअत में वहाँ से कई सौ लोग आए थे, और उन लोगों ने नबी (सल्ल.) को मदीना आने को कहा और आप (सल्ल.) ने उनके इस आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। अब योजना यह थी कि मक्का से निकलकर मदीना जाकर वहाँ बसा जाएगा और वहाँ रहकर सारे अरब में और उसके बाद सारी दुनिया में इस्लाम को फैलाया जाएगा।

आप (सल्ल.) के आदेश पर तमाम बड़े-बड़े सहाबा पहले ही मक्का छोड़कर मदीना जा चुके थे। अब कुछ अहम सहाबा में हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) और हज़रत अली (रज़ि.) बाक़ी रह गए थे। बहुत से कमज़ोर और ग़रीब मुसलमान ऐसे भी थे, जिन्हें क़ुरैश के सरदारों ने ज़बरदस्ती रोक रखा था और उन लोगों के पास न इतनी ताक़त थी कि वे क़ुरैश का मुखर विरोध करते, न संसाधन थे जिनके बल पर वे मक्का छोड़कर मदीना में रहने के लिए चले जाते।

मक्का के सरदारों ने यह महसूस कर लिया था कि अब इस्लाम का कोई अन्य केन्द्र बननेवाला है, अतः हमें एक फ़ैसला करना चाहिए। इसके लिए वे सब लोग ‘दारुन्नदवा’ में (जो एक तरह से उनकी लोकसभा थी) इकट्ठा हुए और विभिन्न प्रस्ताव रखे गए। किसी ने कहा कि इन लोगों को निष्कासित कर दिया जाए, किसी ने कहा के इन्हें बन्दी बना लिया जाए… परन्तु अन्त में अबू-जहल का यह प्रस्ताव सर्वसहमति से स्वीकार कर लिया गया कि ‘क़ुरैश के विभिन्न क़बीलों से एक-एक नौजवान को लिया जाए और ये सब लोग मुहम्मद पर अचानक हमला कर दें और इस प्रकार उनकी जान ले लें और इस्लाम को कमज़ोर कर दें और अब्दे-मुनाफ़ सबके साथ मुक़ाबला नहीं कर सकेंगे।’

अल्लाह तआला जिसने क़ुरआन में नबी (सल्ल.) से वादा किया था कि “अल्लाह तुम्हें लोगों (की बुराइयों) से बचाएगा।” (क़ुरआन, 5/67) उसने नबी (सल्ल.) को सूचना दे दी और नबी करीम (सल्ल.) ने केवल हज़रत अबू-बक्र (रज़ि.) और हज़रत अली (रज़ि.) को बता दिया। इसके बाद समय तय कर लिया गया। दोपहर के समय नबी (सल्ल.) हज़रत अबू-बक्र (रज़ि.) के पास आए कि “मुझे अल्लाह की तरफ़ से मक्का को छोड़ने की इजाज़त मिल चुकी है। आज रात हमें यहाँ से चले जाना है।”

अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) जिनको अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के यारे-ग़ार (गुफा के साथी) होने का सौभाग्य मिला, उन्होंने पहले ही से दो तीव्र गति से चलनेवाली ऊँटनियाँ तैयार कर रखी थीं और साथ उरैक़त नामक व्यक्ति को भी, जो वहाँ के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से अवगत था, नियुक्त कर लिया था।

ग़ौर कीजिए उस रात पर। यह वह रात थी, जिसके बाद संसार के भाग्य में एक नया मोड़ आ रहा था। अपने घर पर आपने हज़रत अली से कहा, “अली, यह मेरा बिस्तर है, आज रात तुम इस बिस्तर पर सो जाना। और अल्लाह ने चाहा तो तुम्हें कोई नुक़सान न पहुँचेगा।” फिर आप (सल्ल.) ने अली (रज़ि.) से कहा, “ये कुछ अमानतें है, ये इनके मालिकों तक पहुँचा देना। उसके बाद तुम भी मदीना आ जाना।”

हज़रत अली (रज़ि.) निःसंकोच इसके लिए तैयार हो गए और फिर उन्हें बड़ी अच्छी नींद आई।—ऐसा ही जज़्बा हम सबमें भी होना चाहिए कि अल्लाह का रसूल बच जाए, मेरी जान चली जाए तो कोई बात नहीं, मैं कट जाऊँ, इस्लाम बच जाए। यही ईमान है, यही इस्लाम की हक़ीक़त है। जो आदमी अपने मक़सद के लिए जान देने के लिए तैयार हो जाता है, वह सबसे बड़ा इंसान होता है। दुनिया में लोग छोटे-छोटे उद्देश्यों के लिए ज़िन्दगियाँ लगा देते हैं।—हज़रत अली (रज़ि.) ने उस समय साबित किया कि मैं कट जाऊँ कोई बात नहीं, लेकिन अल्लाह के रसूल बच जाएँ, ताकि इस्लाम आगे बढ़े।

रात जब कुछ बीत चुकी थी, तो नबी (सल्ल.) निकलने के लिए तैयार हुए। आप (सल्ल.) की प्रतीक्षा में कितने ही युवक तलवारें लिए आस-पास घात लगाए हुए थे। आप (सल्ल.) ने अल्लाह से सुरक्षा माँगते हुए क़ुरआन की सूरा36 या-सीन पढ़नी शुरू की और फिर ऐसा हुआ कि अल्लाह ने वहाँ से आपको सुरक्षित निकाल दिया कि दुश्मनों की नज़र आपपर न पड़ सकी। वे सब ऊँघने लगे थे। सच है जिसको अल्लाह तआला बचाना चाहे, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

नबी (सल्ल.) से तो अल्लाह तआला ने यह कहा था कि ‘ऐ नबी, हमने तुमको इसलिए भेजा है ताकि इस्लाम सारी दुनिया में फैल जाए और तमाम धर्मों पर प्रभावी हो जाए।’ इसलिए कोई आपका कुछ कैसे बिगाड़ सकता था।

उसके बाद नबी (सल्ल.) रात के अंधेरे में धीरे-धीरे चलते हुए मक्का के दक्षिण में स्थित ‘सौर’ नामक गुफा में पहुँचे और वहाँ आप (सल्ल.) और आपके साथी अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) छिप गए। आप (सल्ल.) तीन दिन और रात वहाँ छिपे रहे।

उधर मक्का में आप (सल्ल.) के सुरक्षित बचकर निकल जाने के कारण हँगामा मच गया। घात लगानेवाले और उन्हें नियुक्त करनेवाले चकित थे कि आख़िर सबको ऊँघ कैसे आ गई। उस ज़माने में कुछ खोजी लोग हुआ करते थे, जो इंसान के पैरों के निशान पहचान लिया करते थे। उन्हें उस ज़माने के गुप्तचर विभाग वाले समझा जा सकता है। उनकी सहायता से मक्का के सरदार ‘सौर’ गुफा तक भी पहुँच गए, लेकिन वे गुफा के द्वार पर मकड़ी का जाला देखकर निराश हो गए, पास में एक कबूतरी भी अपने अंडों पर बैठी हुई थी। यह सब देखकर उन्हें लगा कि अगर कोई अन्दर गया होता तो यह जाला टूट जाता और कबूतरी भी यों न बैठी रहती। यह सोचकर वे वहाँ से पलट गए और इस प्रकार अल्लाह ने आप (सल्ल.) और आपके प्यारे दोस्त अबू-बक्र (रज़ि.) की रक्षा की। अल्लह इसी तरह अपने रसूलों और उसके अनुयायियों की सहायता करता है।

अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) परेशान थे। उनका भी यही जज़्बा था कि मैं कट जाऊँ, मैं मर जाऊँ, मगर अल्लाह के रसूल (सल्ल.) पर आँच नहीं आनी चाहिए। उसी वक़्त क़ुरआन की वह आयत अवतरित हुई थी, जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के द्वारा अल्लाह ने अबू-बक्र (रज़ि.) को सांत्वना दिलवाई, “डरो मत, अल्लाह हमारे साथ है।”
उस समय अल्लाह तआला ने ईमान के लश्कर उतारे, सुकून की दौलत दी, फिर तीन दिन के बाद आप (सल्ल.) वहाँ से रवाना हुए और फिर उसके बाद आप (सल्ल.) ने मदीना की ओर सफ़र शुरू किया, जो वहाँ से 400 किलोमीटर (लगभग 250 मील) दूर है।

मक्का के धनाढ्य लोगों की ओर से यह घोषणा की गई थी कि ‘जो भी मुहम्मद को ज़िन्दा या मुर्दा पकड़कर लाएगा, उसको 100 ऊँट दिए जाएँगे।’ इस मामले में अपनी क़िस्मत आज़मानेवाले घूमते फिर रहे थे, लेकिन नबी (सल्ल.) ने अपना सफ़र जारी रखा, और सफ़र जारी रखकर आख़िरकार आप (सल्ल.) मदीना पहुँचने में सफल हो गए। सफ़र में कुछ घटनाएँ घटीं। अल्लाह ने चाहा तो अगले एपिसोड में उनमें से कुछ घटनाओं और मदीना मुनव्वरा में नबी (सल्ल.) के स्वागत के बारे में आप लोगों की सेवा में कुछ और जानकारी प्रस्तुत की जाएगी।

سُبْحَانَ رَبِّكَ رَبِّ الْعِزَّةِ عَمَّا يَصِفُونَ وَسَلَامٌ عَلَى الْمُرْسَلِينَ وَالْحَمْدُ لِلہِ رَبِّ الْعَالَمِين

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