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रंग-ए-ग़ज़ल: उर्दू अदब की दुनिया का नया फ़लक, दिल्ली में सजेगी रूहानी शाम

'रंग-ए-ग़ज़ल' की यही कोशिश है कि हर शायर के उस एकाकीपन को समझा जा सके, जहां से इमोशंस की ओरिजिन होती है और वह शायरी की शक़्ल में दुनिया के सामने आता है.

Rang e Ghazal Mushaira Delhi: अक्सर आर्ट यानी कला को मंचों और रोशनी की सीमाओं में बांध दिया जाता है. लेकिन चकाचौंध और क़िस्से-कहानियों से भरी उर्दू अदब (साहित्य) की दुनिया में एक ऐसा इनिशिएटिव शुरू हो रहा है, जिसे देख कर साहित्यप्रेमियों में नई उम्मीद जग रही है. ‘रंग-ए-ग़ज़ल’ कुछ अलग सोचने की हिम्मत करता है. यह प्लेटफॉर्म एक ऐसे स्पेस का ख़्वाब लेकर चल रहा है, जहां शायरी सिर्फ़ सुनाई न जाए, बल्कि शायर के दर्द और सोच महसूस किया जाए, जहां से शायरी की पौध बनती है.

अंग्रेज़ी के जाने-माने साहित्यकार विलियम वर्ड्सवर्थ कहते हैं- “Poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings: it takes its origin from emotion recollected in tranquility.”

‘रंग-ए-ग़ज़ल’ की यही कोशिश है कि हर शायर के उस एकाकीपन को समझा जा सके, जहां से इमोशंस की ओरिजिन होती है और वह शायरी की शक़्ल में दुनिया के सामने आता है. यह एक ऐसा मंच होगा, जहां हर आर्टिस्ट- इज़्ज़त, पहचान और अपनी अहमियत पाता है, वो नया हो या पुराना.

रंग-ए-ग़ज़ल: एक मूवमेंट

‘रंग-ए-ग़ज़ल’ का मक़सद एक ऐसी दुनिया बनाना है, जहां आर्टिस्ट को पहले पायदान पर रखा जाए. यह सिर्फ़ क्रिएटिविटी का सेलिब्रेशन ही नहीं, बल्कि क्रिएटिविटी के लिए किए जाने वाले स्ट्रगल का भी सेलिब्रेशन है. इस मूवमेंट का मक़सद उन आर्टिस्ट्स को साथ लाना है, जो अब तक बिखरे हुए थे, जिससे उर्दू शायरी, म्यूज़िक और परफॉर्मेंस की दुनिया को ऐसा जामा पहनाया जा सके, जहां आर्टिस्ट सिर्फ़ दिल से नहीं, पेशेवर के तौर पर भी अपने क़लम दौड़ा सकें.

‘रंग-ए-ग़ज़ल’ की बुनियाद के पीछे जो सोच है, उसकी नींव उर्दू शायर अनवर कमाल और मोहम्मद आसिफ़ ने डाला. दोनों का मानना था कि शायरी और परफॉर्मेंस को एक मॉर्डर, संसटिव स्टेज की ज़रूरत है. उन्होंने मिलकर यह ठाना कि मुशायरों और कवि-सम्मेलनों के एक्सपीरिएंस को एक नया मोड़ दिया जाए, जहां तहज़ीब और नयापन साथ चलें.

जब उर्दू शायरा शारिक़ा मलिक ‘रंग-ए-ग़ज़ल’ से बतौर डायरेक्टर जुड़ीं, तो उन्होंने इस मंच में नया नज़रिया और ख़ूबसूरती जोड़ी. उनकी क्रिएटिव सोच और आइडियाज़ ने ‘रंग-ए-ग़ज़ल’ मूवमेंट को नए फ़लक से जोड़ा.

‘रंग-ए-ग़ज़ल’ की दुनिया सिर्फ़ शायरी तक महदूद नहीं है. यह भारत की शानदार गंगा-जमनी तहज़ीब का जश्न है, जहां ग़ज़ल, ठुमरी, दादरा, लोक संगीत, शास्त्रीय और आधुनिक नृत्य और अन्य प्रदर्शन कलाएं मुल्क के तहज़ीब को एक साथ पिरोती हैं.

दिल्ली में ‘रंग-ए-ग़ज़ल’ का पहला एडिशन

‘रंग-ए-ग़ज़ल’ का पहला एडिशन दिल्ली में होने जा रहा है, जो 21 नवंबर को लोदी कॉलोनी के ‘लोक कला मंच’ में होगा. यह एक ऐसी शाम होगी, जहां लिटरेचर की दुनिया में एक नई तारीख़ लिखी जाएगी. अभिलाषा ओझा की गीत और नग़मे से शुरुआत होगी, फिर आएगी अफ़ताब क़ादरी की रूहानी कव्वाली और फिर केना स्री के क़िस्से, जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी को पोएट्री में बदल देती हैं.

शाम का असली रंग मुशायरे में उभरेगा, जिसमें मुल्क भर से आए शायर अपने शब्दों से एहसास और तसव्वुर का एक ज़िदा कैनवस बनाएंगे. मुशायरे की फ़ेहरिस्त में शाहिद अंजुम, मोइन शादाब, रहमान मुसव्विर, अनवर कमाल, हाशिम फिरोज़ाबादी, ज़फ़र जबलपुरी, संतोष, प्रतिभा यादव, गायत्री मेहता, शारिका मलिक, हम्ज़ा बिलाल, आरजे शाहिस्ता मेहजबीं, उमर इज़हार, इल्मा हाशमी, ईशिका चंडेलिया, वंधना सिद्धार्थ, शमा प्रजापति, अलंक्रत श्रीवास्तव, रोज़ा अहमद, अनम अफ़रोज़, सबा पाशा, मुस्कान मजीद और साक़िब मज़ीद जैसे क़लमकार शामिल हैं. हर शायर अपने रंग से इस शाम को और गहरा बना देता है.

हर शेर, हर सुर, हर कहानी मिलकर एक ऐसे बड़े ख़्वाब को बुनती है, जहां आर्ट सिर्फ़ देखा या सुना नहीं जाता, बल्कि जिया जाता है. क्योंकि ‘रंग-ए-ग़ज़ल’ सिर्फ एक जश्न नहीं बल्कि एक मूवमेंट यानी आंदोलन है. एहतराम, इस्तिक़रार और साझेदारी की जानिब बढ़ता हुआ तहरीक. ऐसा स्पेस, जहां फ़न जज़्बात से मिलता है और हर फ़नकार हक़ीक़तन ‘अव्वल’ आता है.

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