नबी (सल्ल.) मुतइम-बिन-अदी की पनाह में

नबी (सल्ल.) मुतइम-बिन-अदी की पनाह में

प्रिय दर्शको, ताइफ़ में नबी (सल्ल.) को जिस अपमान और उपेक्षा को सहन करना पड़ा उसके बाद मक्का में आप (सल्ल.) की पोज़िशन काफ़ी ख़राब हो गई। मक्का के सरदार और धनाढ़्य लोग इसपर ख़ुशियाँ मनाने लगे। फिर यह कि आप (सल्ल.) का मर्थन करने और आपको संबल पहुँचाने के लिए अबू-तालिब और हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) जैसे लोग भी नहीं रहे थे। आप (सल्ल.) के बहुत से साथी हिजरत करके हब्शा चले गए थे, कुछ लोग मदीना चले गए थे। आप (सल्ल.) को मजबूरों और पीड़ितों की सहायता करने और दुनिया में इंसाफ़ लाने के लिए नबी बनाकर भेजा गया था, लेकिन अब आप (सल्ल.) ख़ुद ही दूसरों की मदद के मुहताज हो गए थे। चुनाँचे आप नख़ला से चलकर हिरा के स्थान पर आए, और मक्का में और ज़्यादा शरारतें करने की यहाँ तक कि आप (सल्ल.) को क़त्ल करने तक की साज़िशें हो रही थीं।

चुनाँचे आप (सल्ल.) ने एक व्यक्ति से कहा, “देखो, तुम मक्का जाओ, और वहाँ जाकर अख़नस-बिन-शुरैक़ के पास जाकर कहो कि क्या वह मुझे पनाह दे सकता है?”

वह व्यक्ति वहाँ गया और अख़नस-बिन-शुरैक़ तक आपका सन्देश पहुँचाया। वह बोला, “देखो, मैं क़ुरैश का समझौता मित्र हूँ, मैं उनके ख़िलाफ़ किसी को पनाह नहीं दे सकता हूँ।” इसके बाद वह व्यक्ति वापस आ गया।

नबी (सल्ल.) ने उसे फिर मक्का भेजा। इस बार आप (सल्ल.) ने उसे सुहैल-बिन-अम्र के पास भेजा।— यह वही सुहैल-बिन-अम्र है जो सुलह हुदैबिया के ज़माने में मक्का का प्रतिनिधि बनकर आया था और वह आप (सल्ल.) के ख़िलाफ़ भाषण भी दिया करता था और बद्र की जंग में जब वह गिरफ़्तार हुआ तो हज़रत उमर (रज़ि.) ने कहा कि “ऐ अल्लाह के रसूल, इसके सामने के दो दाँत तुड़वा दीजिए ताकि यह भाषण न दे सके।” आप (सल्ल.) ने कहा, “नहीं, मैं अल्लाह की तारीफ़ बयान करता हूँ, मैं अल्लाह से पनाह चाहता हूँ, अगर मैंने उसके जिस्म के किसी हिस्से को बिगाड़ा तो अल्लाह का नबी होने के बावजूद मैं इस बात से डरता हूँ कि कहीं अल्लाह मेरे जिस्म के किसी हिस्से को बिगाड़ न दे।”—वह मक्का का एक बड़ा सरदार था, लेकिन उसने भी आप (सल्ल.) को पनाह देने से अपनी मजबूरी प्रकट की।

अरब के लोग बहुत स्वाभामानी थे। अगर कोई उनसे पनाह माँगता तो पनाह भी देते थे, और पनाह न देना उनकी शान के ख़िलाफ़ होता था, लेकिन फिर भी सुहैल ने बहाना कर दिया।

एक बार फिर आपने उस व्यक्ति को मक्का भेजा और इस बार मुतइम-बिन-अदी के पास भेजा और उससे कहलाया कि “मुहम्मद तुम्हारी पनाह चाहते हैं।” यह सुनकर मुतइम तुरन्त इसके लिए तैयार हो गया। उसने अपने बेटों, भतीजों और परिवार के दूसरे लोगों को इकट्ठा किया और उन सबके सामने कहा कि जाओ, मैं उन्हें पनाह दे रहा हूँ। मुतइम के रिश्तेदारों ने जंगी वस्त्र पहन लिए और तलवारें संभाल लीं। फिर जब नबी (सल्ल.) मक्का आए तो ये लोग आप (सल्ल.) की रक्षा करते हुए हरम शरीफ़ ले गए। नबी करीम (सल्ल.) ने काबा का तवाफ़ (परिक्रमा) किया, और फिर वे लोग आपको आपके घर तक पहुँचाकर आए। इस तरह नबी (सल्ल.) को मुतइम-बिन-अदी की पनाह लेकर मक्का में आना पड़ा, वरना आप (सल्ल.) की जान को ज़बरदस्त ख़तरा था।

इसी सिलसिले की एक और बात आपको बताना चाहता हूँ। इस घटना के दो-तीन साल के बाद जब नबी करीम (सल्ल.) हिजरत करके मदीना चले गए, और मदीना में जाने के दो साल बाद ही रमज़ान 2 हिजरी में बद्र की जंग हुई तो अल्लाह तआला ने अपने रसूल की मदद की, मुसलमान सफल हुए और क़ुरैश के तमाम बड़े-बड़े सरदार उस जंग में मार दिए गए हालाँकि वे बहुत बड़ी सेना, 1000 लोगों को लेकर आए थे, जबकि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के पास केवल 313 लोग ही थे, साथ ही हथियारों की भी कमी थी, यहाँ तक कि ऊँट तक नहीं थे, एक-दो घोड़े थे बस। ऐसे में उन लोगों के सत्तर लोग गिरफ़्तार भी हुए थे। उस जंग में मुतइम-बिन-अदी नहीं था, क्योंकि तब तक उसका इन्तिक़ाल हो चुका था। उसने इस्लाम स्वीकार नहीं किया था। नबी (सल्ल.) ने कहा, “अगर आज मुतइम-बिन-अदी होता, जिसने मुझे पनाह दी थी, अगर वह इनके बारे में सिफ़ारिश करता तो मैं बिना कोई जुर्माना लगाए हुए इनको रिहा कर देता।”

ये थी वे अत्यंत कठिन परिस्थितियाँ जिनमें नबी (सल्ल.) मक्का निवास के आख़िरी दौर मे अल्लाह का सन्देश पहुँचा रहे थे। अल्लाह तआला की हज़ारों रहमतें बरसें नबी (सल्ल.) पर और अल्लाह आपके दर्जे बुलन्द करे जिन्होंने इतने कष्ट सहकर अल्लाह के सन्देश को अल्लाह के बन्दों तक पहुँचाया।

व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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