अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का सामाजिक बहिष्कार

अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का सामाजिक बहिष्कार

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह दयावान, कृपाशील के नाम से)

प्रिय दर्शको,

अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की पैग़म्बरी का सातवाँ साल था और क़ुरैश का विरोध बढ़ता जा रहा था, क्योंकि वे देख रहे थे कि सकारात्मक सोच और सद्बुद्धि रखनेवाले लोग थे वे धीरे-धीरे इस्लाम स्वीकार करते जा रहे थे। उन्हें डर था कि उनका नेतृत्व और उनकी चौधराहट उनके हाथों से चली जाएगी। वे केवल अपने भौतिक लाभ के बारे में सोच रहे थे।

उस ज़माने में क़बीला सिस्टम होता था, जिसके तहत हर स्थिति में अपने क़बीले का समर्थन किया जाता था। नबी (सल्ल.) का संबंध बनू-हाशिम क़बीले से था। इसलिए क़ुरैश के सारे सरदारों ने मिलकर यह तय किया कि बनू-हाशिम का आर्थिक एवं सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाए, उनके साथ कोई किसी प्रकार का लेन-देन नहीं करेगा, कोई व्यापार नहीं करेगा, उनकी सहायता नहीं करेगा, उनके साथ शादी-ब्याह का संबंध नहीं बनाएगा यहाँ तक कि किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं रखेगा। इससे बनू-हाशिम के लोग मजबूर हो गए। उन्होंने आप (सल्ल.) का साथ दिया और अबू-तालिब के नेतृत्व में मक्का की एक घाटी में चले गए, जो ‘शेबे-अबी-तालिब’ (अबू-तालिब की घाटी) के नाम से प्रसिद्ध थी। वहाँ जाकर लगभग तीन वर्ष तक इस Open air (बिना चारदीवारी की) जेल में वे बंदी बनकर रहे। उन लोगों को केवल हज और उमरे के हराम (प्रतिष्ठित) महीनों में बाहर निकलने की अनुमति मिलती थी। बच्चे तड़पते थे, लोग भूख से निढाल हो जाते थे। कभी-कभी जब खाने को कुछ न होता पेड़ों के पत्ते तक खाने पड़ते।

क़ुरैश में कुछ नेक लोग भी थे। जैसे कि हज़रत ख़दीजा (रज़ि.) के भतीजे हकीम-बिन-हिज़ाम कभी-कभी चुपके से खाने-पीने की कुछ चीज़ें भेज देते थे, कभी कोई रात के समय आकर अनाज वहाँ पर डालकर चला जाता था। बहुत मुश्किलों में वे दिन बीत रहे थे। यह भी एक सच्चाई है कि बुरे से बुरे लोगों में भी कुछ न कुछ सज्जनता और मानवता होती है, आख़िरकार क़ुरैश के कुछ सभ्य लोगों ने कहा, “अब तो बहुत समय बीत चुका है, तीन साल हो गए हैं। हम तो खाएँ-पिएँ, आराम की ज़िन्दगी गुज़ारे, अपने बीवी-बच्चों के साथ रहें और ये बनू-हाशिम के लोग सताए जाएँ, यह तो कोई अच्छी बात नहीं है, मानवता के ख़िलाफ़ है।”

अतः क़ुरैश हकीम-बिन-हिज़ाम, ज़ुहैर-बिन-अबी-उमैया, मुतइम-बिन-अदी जैसे क़ुरैश के कुछ लोगों ने कहा कि “अब इस बहिष्कार को समाप्त कर देना चाहिए।” उसके बाद तीन लोग (मुतइम, अबुल-बख़्तरी और ज़मा) क़ुरैश के सरदारों के पास पहुँचे और कहा कि “देखिए, अब ज़ुल्म समाप्त होना चाहिए। जो समझौता लिखकर काबा की दीवार पर लगाया गया है, हम उसे फाड़कर फेंक देंगे।”

क़ुरैश के कुछ सरदारों ने इन तीनों का विरोध किया, लेकिन उनमें से एक व्यक्ति आगे बढ़ा, उसने उस समझौते को देखा और देखा कि सारा समझौता दीमक खा गई थी, केवल शुरू में लिखे गए शब्द “बिस्मि-क अल्लाहुम-म” (ऐ अल्लाह तेरे नाम से) बाक़ी रह गए हैं।

इस प्रकार बनू-हाशिम तीन वर्ष तक जिन कठिनाइयों और कष्टों का शिकार थे, उनका ख़ातिमा हुआ और फिर उसके बाद ज़ुल्म करने वाले भी शायद थक चुके थे कि आख़िर कितना ज़ुल्म करेंगे।

याद रखिए कि अल्लाह के रास्ते में मुश्किलें आती हैं। क़ुरआन में अल्लाह कहता है—

وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِنَ الْخَوْفِ وَالْجُوعِ وَنَقْصٍ مِنَ الْأَمْوَالِ وَالْأَنْفُسِ وَالثَّمَرَاتِ وَبَشِّرِ الصَّابِرِينَ * الَّذِينَ إِذَا أَصَابَتْهُمْ مُصِيبَةٌ قَالُوا إِنَّا لِلَّهِ وَإِنَّا إِلَيْهِ رَاجِعُونَ * أُولَئِكَ عَلَيْهِمْ صَلَوَاتٌ مِنْ رَبِّهِمْ وَرَحْمَةٌ وَأُولَئِكَ هُمُ الْمُهْتَدُونَ

“और हम अवश्य ही कुछ भय से, और कुछ भूख से, और कुछ जान-माल और पैदावार की कमी से तुम्हारी परीक्षा लेंगे। और धैर्य से काम लेनेवालों को शुभ-सूचना दे दो। जो लोग उस समय, जबकि उनपर कोई मुसीबत आती है, कहते हैं, ‘निस्संदेह हम अल्लाह ही के हैं और हम उसी की ओर जानेवाले हैं।’ यही लोग हैं जिनपर उनके रब की विशेष कृपाएँ हैं और दयालुता भी, और यही लोग हैं जो सीधे मार्ग पर हैं।” (क़ुरआन, 2/155-157)

हालात कितने ही मुश्किल क्यों न हों, एक ईमानवाले को मुश्किल से मुश्किल हालात में भी अल्लाह पर भरोसा रखना चाहिए। अल्लाह तआला अपने दीन को मुकम्मल करेगा, मानवता की सुबह होगी।

अल्लाह तआला से दुआ है कि वह मुश्किल हालात में अपना दामन छोड़ने से हमको बचाए, और दृढ़ संकल्प के साथ उसकी राह में आगे बढ़नेवाला बनाए। अल्लाह हमारी और आपकी मदद करे, यहाँ तक कि इस्लाम का प्रकाश सारी दुनिया में फैल जाए।

व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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