सहाबा (रज़ि.) को सख़्त प्रताड़नाएँ देना

सहाबा (रज़ि.) को सख़्त प्रताड़नाएँ देना

प्रिय दर्शको,

आज आपके सामने कुछ घटनाएँ प्रस्तुत की जाएँगी नबी (सल्ल.) के साथियों को किस प्रकार से सताया गया, और किस तरह से उन्हें अल्लाह के मार्ग में प्रताड़ित किया गया। हज़रत अम्मार (रज़ि.), उनके पिता यासिर (रज़ि.) और उनकी माँ सुमैया (रज़ि.), ये सब लोग बाहर से आकर मक्का में बसे थे। आप जानते हैं कि दूसरी जगहों से आने वाले लोग, स्थानीय लोगों से संबंध बनाकर उनके द्वारा सुरक्षा प्राप्त करते हैं। हज़रत अम्मार के घर वाले ग़रीब लोग थे, और वे भी मक्का के लोगों की छत्रछाया में रह रहे थे, लेकिन जब इस्लाम रूपी सूरज का उदय हुआ, उसकी किरणें जब काबा और हरम शरीफ़ के आसपास जगमगाने लगीं, तो उन्होंने आगे बढ़कर नबी (सल्ल.) के हाथों में अपना हाथ दे दिया और इस्लाम स्वीकार कर लिया। देखा जाए तो धन-दौलत, ताक़त, शोहरत, ये चीज़ें भी बहुत बड़ी आज़माइश हैं। इनका दुरुपयोग भी किया जा सकता है, लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, धन-दौलत नहीं है, आर्थिक स्वार्थ नहीं है, वह तो यह कहकर आगे बढ़ जाता है—

हटो रस्ते से ऐ शैख़ो-बरहमन, मेरे रब ने मुझे आवाज़ दी है

हज़रत अम्मार (रज़ि.) नौजवान थे, वह ईमान लाए और उनके माँ-बाप हज़रत यासिर (रज़ि.) और हज़रत सुमैया (रज़ि.) तीनों ईमान लाए। नबी (सल्ल.) देखते कि किस प्रकार उन्हें सताया जा रहा है। हज़रत यासिर (रज़ि.) जो उस समय बूढ़े हो चुके थे, उनके हाथ पैर बाँधकर, गर्मी की भरी दोपहर में तपती बालू पर उनके कपड़े उतारकर उन्हें लिटा देते। कभी गर्म-गर्म लोहे की छड़ियों से दाग़ते, कभी पानी में डुबकियाँ देते। इस सब पर कभी-कभी नबी (सल्ल.) की भी नज़र पड़ जाती थी, मगर आप मजबूर थे, आप (सल्ल.) के पास उन ज़ालिमों को रोकने के लिए न तो बाहुबल था न सत्ता का अधिकार, आपके पास था तो केवल अल्लाह तआला का सन्देश, उसी सन्देश की ओर आप (रज़ि.) सबको बुला रहे थे। पिता हज़रत यासिर (रज़ि.) को ही नहीं, हज़रत अम्मार (रज़ि.) और उनकी माँ सुमैया (रज़ि.) को भी ऐसे ही अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा था।

नबी (सल्ल.) यह सब देखकर कहते, “ऐ यासिर के ख़ानदान के लोगो, सब्र करो, सब्र। तुम्हारा बदला जन्नत है।”

इस्लाम एक बहुत बड़ा वरदान है जो नबी (सल्ल.) ने अपने अनुयायियों के लिए उपलब्ध कर दिया है। इस्लाम दुश्मनों की ओर से उन प्रताड़नाओं का सिलसिला आज भी जारी है। चुनाँचे हम देखते हैं कि आतंकवाद के झूठे आरोप लगाकर उल्टा लटका दिया जाता है, पैरों को बिल्कुल चीर दिया जाता है। ऐसी-ऐसी यातनाएँ दी जाती हैं और ज़बरदस्ती सादा काग़ज़ों के पुलिन्दे पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं। एक बार किसी ने कहा था कि अमेरिका के राष्ट्रपति को हमारे हवाले कर दो, हम भी टार्चर करके उनसे सब कुछ करवा लेंगे। इसी तरह भारते के बारे में भी कहा था। बहुत दुख की बात है कि इस प्रकार के हथकंडे मुस्लिम शासक भी प्रयोग करते हैं।

हज़रत अम्मार (रज़ि.) को जो जवान थे, उनके पिता यासिर (रज़ि.) और उनकी माँ सुमैया (रज़ि.) इन सबको सताया जाता और नबी करीम (सल्ल.) मजबूरी की हालत में इससे अधिक कुछ न कह पाते कि “सब्र करो ऐ यासिर के ख़ानदान के लोगो, तुम्हारा सब्र तुम्हें जन्नत तक लेकर जाएगा।” उनकी मदद करने की स्थिति में आप (सल्ल.) नहीं थे, यहाँ तक कि हज़रत यासिर (रज़ि.) ने तड़प-तड़पकर जान दे दी। इसके बाद एक दिन अबू-जहल ने हज़रत सुमैया के पेट के नीचे बरछी से ऐसा वार किया कि वे उस वार को झेल न सकीं और वे भी इस संसार से विदा हो गईं ।

अल्लाह की राह में ऐसी ही मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं। अल्लाह तआला सबकुछ देख रहा है, वह किसी बात से भी अनजान नहीं है। यह सब फिर हो सकता है, इतिहास फिर दोहरा सकता है। लेकिन उसके बाद इंशाअल्लाह ज़ालिमों का ख़ातिमा होगा, और ख़ुदा की तरफ़ बुलाने वाले उसके नेक बन्दे सफल होंगे। अल्लाह तआला हमारी और आपकी सबकी मदद करे और लोगों को सद्बुद्धि प्रदान करे और इस राह पर चलनेवालों को उनकी मंज़िल तक पहुँचाए। आमीन या रब्बल आलमीन।

व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।

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