अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की असीम दयालुता-I
प्रिय दर्शको, आप सबको मेरा प्यार भरा सलाम।
नवी करीम (सल्ल.) सारे संसार के लिए रहमत और दयालुता बनाकर भेजे गए थे। जैसा कि अल्लाह ने क़ुरआन में कहा है—
وَمَآ أَرْسَلْنٰكَ إِلَّا رَحْمَةً لِّلْعٰلَمِينَ
“हमने तुम्हें सारे संसास के लिए सर्वथा दयालुता बनाकर भेजा है।” (क़ुरआन, 21/107)
चुनाँचे आप (सल्ल.) के घरवालों के साथ, आपके सहाबा के साथ, बच्चों के साथ, औरतों के साथ, ग़ुलामों के साथ, मजबूरों के साथ, परेशानहाल लोगों के साथ आप (सल्ल.) की दयालुता की अनगनित घटनाएँ हमारे सामने आती हैं। आप छोटी से छोटी बात का भी बेहद ध्यान रखते थे, आपकी मेहरबानी सबके साथ थी, इसमें छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब का कोई भेद नहीं था।
जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह बयान करते हैं कि “मैं नबी (सल्ल.) के लगभग 21 ग़ज़वों (जंगों) में शरीक हुआ हूँ। मैं ज़ातुर्रिक़ा नामक ग़ज़वे में शरीक था, और मेरा ऊँट कमज़ोर था जिसके कारण वह थककर बैठ गया था। और अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का हाल यह था कि आप (सल्ल.) ग़ज़वे के कारवाँ की पूरी निगरानी रखे हुए थे, इसलिए कभी आप (सल्ल.) आगे जाते तो कभी पीछे जाते, हर एक का हाल पूछते, उसके लिए दुआ करते।”
नबी (सल्ल.) जो उस वक़्त उस कारवाँ के सरदार थे, वह ऊँट को बैठा देखकर वह जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह के पास आए। और पूछा, “यह कौन है?”
उन्होंने कहा, “मेरे माँ-बाप आप पर क़ुरबान जाएँ, मैं अब्दुल्लाह का बेटा जाबिर हूँ।”
आप (सल्ल.) ने पूछा, “क्या मामला है?”
उन्होंने कहा, “मेरा ऊँट थककर बैठ गया है।”
आप (सल्ल.) ने पूछा, “तुम्हारे पास कोई लाठी है?”
इसपर जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह ने एक छोटी सी लाठी दी। आप (सल्ल.) ने उस ऊँट के वह लाठी ज़रा सी चुभोई, फिर उसे खड़ा किया, फिर उसे बिठाया, उसके पैर को दबाया, और ऊँट पर चढ़ने में हज़रत जाबिर की मदद की, जिससे वह ऊँट पर सवार हो गए। इसे एक चमत्कार और अल्लाह की एक मदद ही कहा जाए कि अल्लाह के रसूल के हाथ लगाते ही ऊँट में जैसे ऊर्जा भर गई थी और वह ऊँट बहुत तेज़-तेज़ चलने लगा।
नौजवान सहाबी हज़रत जाबिर (रज़ि.) फ़रमाते हैं कि “उस रात नबी करीम (सल्ल.) ने कम से कम पच्चीस बार मेरे लिए मग़फ़िरत (अल्लाह से माफ़ी) की दुआ की।” आप (सल्ल.) के मिशन ही यह था कि अल्लाह तआला तमाम इंसानों को माफ़ कर दे और सबके सब लोग दुनिया में अच्छी ज़िन्दगी गुज़ारें और आख़िरत (परलोक) में अल्लाह तआला की दयालुता, माफ़ी से लाभ उठाते हुए हमेशा-हमेशा के लिए आराम, सुख-शान्ति और इज़्ज़त की ज़िन्दगी जिएँ।
फिर उसी दौरान अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने जाबिर से पूछा, “तुम्हारे पिता अब्दुल्लाह, जिनका उहुद की जंग में इन्तिक़ाल हो गया, उन्होंने क्या कुछ छोड़ा है?”
उन्होंने जवाब दिया, “सात औरतें छोड़ी हैं, जिनमें एक तो मेरी बेवा (विधवा) माँ है, उनके अलावा मेरी छः बहने हैं।”
आप (सल्ल.) ने पूछा, “क्या कोई क़र्ज़ वग़ैरा भी छोड़ा है?”
उन्होंने बताया, “जी हाँ, बहुत सा क़र्ज़ भी छोड़ा है मेरे अब्बू ने।”
इसके बाद आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, “जब तुम मदीना आओ तो ये जो क़र्ज़वाले लोग हैं, उन सबके बारे में बात करना, और अगर वे इनकार कर दें तो जब तुम्हारी खजूरें तोड़ने का समय आए तो मुझे ख़बर करना।” फिर आप (सल्ल.) ने और पूछा, “क्या तुमने शादी कर ली?”
वह बोले, “जी हाँ, ऐ अल्लाह के रसूल, मैंने शादी कर चुका हूँ।”
आप (सल्ल.) ने पूछा, “किससे की है?”
तो उन्होंने इस बारे में विस्तार से बता दिया। साथ ही यह भी बताया कि जिससे शादी की है, वह एक बेवा थी।
आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, “तुम जवान आदमी हो, तुमने किसी जवान औरत से शादी क्यों नहीं की, जिससे तुम खेलते और वह तुमसे खेलती?”—इंसान की यह भी एक ज़रूरत है, एक जवान आदमी को एक जवान लड़की मिलनी चाहिए, ताकि वह हँसी-ख़ुशी ज़िन्दगी गुज़ारे।
हज़रत जाबिर (रज़ि.) ने जवाब दिया, “ऐ अल्लाह के रसूल, मेरी बहनें भी जवान हैं और उन्हें अभी तर्बियत (प्रशिक्षण) की ज़रूरत है। इसलिए मैंने पसन्द न किया कि किसी जवान औरत से शादी करूँ, जो उनकी तर्बियत न कर सके। इसी लिए मैंने एक बेवा औरत से शादी कर ली जो अनुभवी है।”
यह सुनकर नबी (सल्ल.) ने कहा कि बहुत अच्छा काम किया तुमने। फिर आप (सल्ल.) ने पूछा, “तुमने यह ऊँट कितने में ख़रीदा?”
जाबिर ने जवाब दिया कि “मैंने पाँच औक़िया सोने के बदले में ख़रीदा है।”
तो नबी (सल्ल.) ने कहा, “अच्छा, इस ऊँट को हमने ख़रीद लिया।” फिर नबी (सल्ल.) ने हज़रत बिलाल (रज़ि.) को बुलाया, जो आपका हिसाब-किताब देखते थे, और कहा कि “इन्हें (जाबिर को) पाँच औक़िया सोना दे दो। इनके पिता अब्दुल्लाह का क़र्ज़ अदा करने में मदद मिलेगी। हाँ, तीन औक़िया सोना और दे दो” और फिर कहा, “और यह ऊँट भी तुम्हारा ही है।”
यह भी नबी करीम (सल्ल.) का दूसरों की मदद करने का एक तरीक़ा था कि किसी से कोई चीज़ लेते तो ख़रीद लेते और फिर उसके बाद वह चीज़ भी उसी को दे देते, ताकि किसी व्यक्ति के अन्दर ख़ुद को तुच्छ समझने की भावना पैदा न हो कि मुझे ख़ैरात दी गई।
फिर उसके बाद आप (सल्ल.) ने पूछा, “क्या तुमने जिनका क़र्ज़ है, उनके बारे में बात पूरी कर ली?”
वह बोले, “हाँ, ऐ अल्लाह के रसूल।”
आप (सल्ल.) ने कहा, “ठीक है, जिस दिन तुम्हारे यहाँ तुम्हारे बाग़ से खजूरें तोड़ी जाएँगी, उस दिन मेरे पास आना।” चुनाँचे आप (सल्ल.) को सूचना दी गई, आप (सल्ल.) वहाँ पर गए। उसके बाद आपने बरकत की दुआ की। उसके बाद जिन-जिन लोगों का क़र्ज़ था, नबी (सल्ल.) सबको नाप-नापकर देते चले गए। हज़रत जाबिर बताते हैं कि “इसके बावजूद बहुत सारी खजूरें बच गईं, बल्कि जितनी पैदावार होती थी, उससे ज़्यादा बच गईं ।”
यह भी एक बरकत की बात है और अल्लाह का रसूल का मोजिज़ा (चमत्कार) भी। आदमी एक अच्छी नीयत से काम करता है तो अल्लाह तआला बरकत देता है। बरकत क्या है, किसी चीज़ का बढ़ जाना। अल्लाह हमारी प्रतिभाओं में बरकत देता है, हमारी आमदनी में बरकत देता है, पत्नी और बच्चों में बरकत देता है। आप (सल्ल.) ने इस बारे में दुआ सिखाई है—
اَللّٰهُمَّ بَآرِکْ لَنِآ فِيْ أَسْمَآعِنَآ وَأَبْصَآرِنَآ وَقُلُوْبِنَآوَأَ زْوَآجِنَآ وَذُرِّيَآتِنَآ
“ऐ अल्लाह हमें बरकत प्रदान कर, हमारी सुनने की ताक़त में, हमारी देखने की ताक़त में, हमारे दिलो-दिमाग़ में, हमारी बीवियों में, हमारे बच्चों में….”
चीज़ थोड़ी होती है, हमारे लिए फ़ायदेमन्द साबित होती है, बेकार नहीं जाती। यह नबी (सल्ल.) के सर्वथा दयालुता होने का एक नमूना है। अल्लाह तआला हमें भी अल्लाह पर भरोसा करने, अल्लाह के काम में लग जाने, अल्लाह के बन्दों के काम आने और सबके लिए सर्वथा दयालुता बन जाने का सौभाग्य प्रदान करे, बल्कि इस पूरी उम्मत (समुदाय) को समाज-सेवी बनना चाहिए, मानवता उपकारक बनना चाहिए और मानवता का हितैषी बनना चाहिए।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।