काबा का नवनिर्माण
प्रिय दर्शको,
आज कुछ मिनट में आपके सामने ख़ाना-ए-काबा के नवनिर्माण के बारे में कुछ बातें पेश की जाएँगी। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) अत्यंत सफल जीवन बिता रहे थे। उस समय आप (सल्ल.) की आयु 34-35 वर्ष के लगभग रही होगी। जैसा कि आप जानते होंगे कि मक्का के चारों ओर पहाड़ियाँ हैं और कभी-कभी ज़ोरदार बारिश होती तो पहाड़ियों का पानी बहुत तेज़ी से आकर ‘हरम’ में इकट्ठा हो जाता और काबा की पुरानी इमारत को नुक़सान पहुँचता। चुनाँचे मक्का के धनाढ्य तथा प्रभावी लोगों ने यह तय किया कि काबा की इमारत को मज़बूत बना दिया जाए। चूँकि नवनिर्माण के लिए काबा की मौजूदा इमारत को क्षति पहुँचानी पड़ती, इसलिए उन्हें ऐसा करते हुए डर भी लग रहा था। फिर उन्होंने सोचा कि हम तो एक अच्छी नीयत से यह काम कर रहे हैं। काबा को लेकर क़बीलों में बहुत प्रतिस्पर्धा रहती थी, विभिन्न क़बीलों ने विभन्न ज़िम्मेदारियाँ लीं और काबा के नवनिर्माण के लिए उसकी पुरानी इमारत को ध्वस्त कर दिया गया। संयोग से उस समय हब्शा (इथोपिया) का एक जहाज़ उच्च कोटि की लकड़ी लेकर कहीं जा रहा था। जिद्दा के समुद्रतट पर वह कुछ चट्टानों से टकरा गया और तबाह हो गया। जहाज़ के मालिक ने वह उच्च कोटि की निर्माण कार्य में काम आनेवाली सारी लकड़ी उतार ली और फिर उसके बाद वह प्रतीक्षा करने लगा कि कोई और जहाज़ मिले तो इसे मैं अपने गंतव्य तक लेकर जाऊँ।
जैसा कि आप जानते हैं कि जिद्दा मक्का से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर है। चुनाँचे मक्का के वे लोग जो काबा के नवनिर्माण की योजना बना रहे थे, उनको पता चला तो उन्होंने वहाँ जाकर सस्ते दामों में लकड़ी के ज़रूरी हिस्से को ख़रीद लिया। वहाँ ‘बाक़ूम’ नामक रोम का एक निवासी रहता था, जो आर्किटेक्ट था, उसकी निगरानी में काबा के नवनिर्माण का काम शुरू हुआ और काबा की दीवारें उठाई जाने लगीं। इसमें पुराने पत्थरों के साथ कुछ नए पत्थर भी शामिल किए गए।
उसी दौरान वहाँ एक बड़ी समस्या खड़ी हुई। यह समस्या ‘हज्रे-असवद’ को लेकर थी। हज्रे-असवद एक बहुत अहम पत्थर था, जिसके बारे में कहा जाता था कि वह जन्नत से आया था और उसे हज़रत इबराहीम (अलैहि.) के समय में अल्लाह के फ़रिश्ते जिब्रील (अलैहि.) लेकर आए थे। यानी नबी (सल्ल.) से लगभग ढाई हज़ार वर्ष पहले और आज से लगभग 4000 साल पहले जब इबराहीम (अलैहि.) और उनके बेटे इस्माईल (अलैहि.) दोनों ने मिलकर काबा का निर्माण किया था। उसके एक कोने में हज्रे-असवद था, जिसे काला पत्थर भी कह सकते हैं। आप जानते हैं कि क़बीलों के अन्दर गर्व और सम्मान पाने के लिए बहुत अधिक प्रतिस्पर्धा रहती थी। इसलिए हज्र-असवद को लेकर भी झगड़ा शुरू हो गया। हर क़बीला चाहता था कि हज्रे-असवद को उसकी जगह पर रखने का सम्मान उसे मिले। इसके लिए तलवारें तक निकल आईं । जब लड़ने-झगड़ने से समस्या हल न हुई और लोग थक हारकर बैठ गए तो उनमें से एक बुज़ुर्ग ने एक प्रस्ताव पेश किया कि “आज तो इस मामले को यों ही छोड़ देते हैं। कल सुबह जो पहला व्यक्ति यहाँ आएगा— हम सब लोग रात में यहीं रहेंगे— वह जो फ़ैसला करेगा, हम उसे मान लेंगे।” चुनाँचे जब सूरज की किरनें फैलीं तो सबसे पहले जिस व्यक्ति ने वहाँ प्रवेश किया वे हज़रत मुहम्मद थे। लोगों ने देखा कि आप (सल्ल.) हल्के-हल्के क़दमों से चलकर मस्जिदे-हराम (काबा) की तरफ़ आ रहे हैं। क़रीब आने पर लोग पहचान गए और पुकार उठे, “अरे, यह तो मुहम्मद हैं, यह तो अमीन (अमानतदार) हैं, यह तो सादिक़ (सच्चे) हैं। यह जो फ़ैसला करेंगे, हम सबको मंज़ूर होगा।” नबी (सल्ल.) आए और हालात का जायज़ा लिया, उसके बाद कहा, “एक चादर लाइए”
ज़ाहिर है कि वहाँ सैकड़ों आदमी इकट्ठा थे। कौन हज्रे-असवद को उसकी जगह पर लगा सकता था। चुनाँचे आपने चादर मँगवाई और उस आप (सल्ल.) ने उस पत्थर को चादर के बीचों बीच में रख दिया। अब ज़ाहिर है कि चादर को भी कई सौ लोग पकड़ नहीं सकते थे। इसलिए आप (सल्ल.) ने कहा, “तमाम क़बीलों के जो सरदार हैं, वे इसको पकड़ लें।” उन सबने ऐसा ही किया। आप (सल्ल.) ने कहा, “इसे ऊँचा उठाओ।” और फिर इसके बाद आप (सल्ल.) ने हज्रे-असवद को उठाकर उसकी जगह पर लगा दिया। इस प्रकार एक बड़ी समस्या आसानी से हल हो गई।
यह घटना भी हमें बताती है कि नबी (सल्ल.) का व्यक्तित्व आरंभ से ही लोगों की नज़रों में महत्वपूर्ण था। मक्का के लोगों को आप (सल्ल.) की शराफ़त, बुद्धिमानी, सच्चाई और ईमानदारी पर पूरा भरोसा था। यह उस समय की घटना है, जब आप (सल्ल.) को अल्लाह की ओर से पैग़म्बरी नहीं दी गई थी और उस समय आपकी उम्र 34-35 वर्ष के लगभग थी।
अल्लाह की असीम दया एवं कृपा हो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर जो अनगिनत सद्गुणों से परिपूर्ण थे और उनके सद्गुणों में उस समय और भी वृद्धि हो गई जब अल्लाह तआला ने पैग़म्बरी जैसा महान पद प्रदान किया तथा ज्ञान, बुद्धिमत्ता तथा तत्त्वदर्शिता की सारी दौलतों को आप (सल्ल.) के क़दमों में डाल दिया।
व आख़िरु दअवा-न अनिल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।